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श्री अनन्त - नाथचरि
त्रादुद्धृतं
पूजाष्टकम्
॥ ८ ॥
दंडेहिं । जीवियनिरवेक्खाए वमन्निओ सो मए दूरं ॥ ६३ ॥ तो तेण वियारिय ऊरुयाए खिविऊण मूलियं विहिया । वानरिया द्दं संरोहिणीए वणमबिय रोहवियं ॥ ६४ ॥ गंतूण नियट्ठाणे समेइ नियंपि पत्थिउं भणइ । जइ मं मन्नसि दइयं ता साहसु गवलवन्नेहिं ॥ ६५ ॥ इय कुवंतस्स गयं दिणनवगं सामिसाल खयरस्स । अजं तु सुकयकम्मेण आगया मज्झ इह तुब्भे ॥ ६६ ॥ उप्पाइयपेम्मंपि हु दाही मह तुम्ह दंसणं दुक्खं । जं सो खेयरराया मायावी दुज्जओ एही ॥ ६७ ॥ दहुं मह महिलत्तं मा काही किंपि तुम्ह सो णत्थं । ता पविसद्द तरुगुम्मे आगंतुं जाव सो जाइ ॥६८॥ आह नरनाहपुत्तो बहारिहो इयरदवचोरोवि । माणुसचोरस्स पुणो लुणामि सीसं सहत्थेण ॥ ६९ ॥ किं होइ वराएणं | तेण न बीहेमि हूं जमस्सावि । इय जंपते कुमरे पत्तो सहसति खयरोवि ॥ २७० ॥ पिच्छेउं नियरूवं कुमरिं कुमरंपि तीए नियडठियं । कोवकयभीमभिउडी अवयरइ पयंपिरो एवं ॥ ७१ ॥ रे दुट्ठ को तुमं मह पियाए पासे समागतो कहसु । कुमरेणुत्तं रे रमणिचोर कह तुह पिया एसा ॥ ७२ ॥ तेणुत्तं एसा जह महप्पिया तह कहेमि खग्गेणं । इय भणिरो करवालं कड्डेउं धाविओ खयरो ॥ ७३ ॥ हुंकारंतो कुमरोवि उट्ठितो उक्खिवित्तु असिघेणुं । दोन्निवि दट्ठोट्ठा भिउडिउभडा जाब जुज्झति ॥७४॥ ता अणुचरामरेणं कहिओ कुमरावहारवुत्तंतो । रिउदंसण- नियनासणपज्जंतो चंदतेयस्स ॥ ७५ ॥ नूणमणवलंबो निवडिऊण रायंगतो मओ होही । इय सविस ओ पत्तो कुमरसमीवे सुरो सहसा ॥ ७६ ॥ दद्दूण कुमरमारणसज्जियघायं तयं खयरखेडं । बद्धो अमरेण अदिट्ठमोरबंधेहिं सो झत्ति ॥ ७७ ॥ संमाणिऊण (निव) नंदणस्स अवहरणकारणं कहिउं । भणितो खयरो जीवसि जइ होसि कुमारभिचो तं ॥ ७८ ॥ मरिसि धुवमन्नहा तं सोडं सो भइ देहि मे पाणे । पहु तुह आणं काहं तो सो मुक्को सुग्वरेण ॥ ७९ ॥ अमरं कुमरं कुमरिं च पणमिडं खामिउंच | तेणुतं । चलह जह रज्जमप्पिय कुमरस्स भवामि भिञ्चो हं ॥ २८० ॥ तो सवाणि वि सुरकयविमाणमारुहिय झत्ति
अक्षत
पूजायां
अक्षत
कीर्तिकथा
॥ ८ ॥