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संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन १४
अप्पहियं कायव्वं आज यह निर्णय हमारे हाथों में है, कि हमे शीघ्र मुक्ति चाहिये या दीर्घ संसार चाहिये? निर्णय लेने की यह स्वाधीनता बहुत ही अल्प काल के लिये है। फिर निर्णय हमारे आधीन नही होगा। स्पष्ट कहूँ तो बात यह है -
अभी नहीं तो कभी नहीं। अभी भी हम क्याँ सोच रहे है? परम पावन श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा
माता हा
तिण्णो हसि अण्णवं महं किं पण चिट्ठसि तीरमागओ? अभितूर पारं गमित्तए समयं गोयम ! मा पमायए॥ इतने विराट समंदर को तो तूं तैर गया है।
तो अभी भी तूं किनारे के पास आकर क्यों रुक गया है ? जल्दी कर, तेरा एक ही पुरुषार्थ, और सारा सागर पार । हे गौतम ! इस पुरुषार्थ को करने में तुम एक समय का भी प्रमाद मत करो।
जो बात भगवान ने गौतमस्वामीजी को कही थी, वही बात भगवान हमें भी कह रहे है। भगवान की बात मानें तो हम न्याल । मोहराजा की बात माने तो हम कंगाल । हमे क्या बनना है वह हमें ही तय करना है। wish you all the best......
परम तारक श्री जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी कहा हो तो मिच्छामी दुक्कडम् ।
अप्पहियं कायव्वं ३
संयमप्राप्ति के लिये शास्त्रीय मार्गदर्शन जैसे कि व्यक्ति समाज के दायित्व को निभाने के लिये देश के दायित्व की उपेक्षा करता है, परिवार के दायित्व को निभाने के लिये समाज के दायित्व की उपेक्षा करता है। एवं शरीर के दायित्व को निभाने के लिये परिवार के दायित्व की उपेक्षा करता है। इन सभी वृत्ति-प्रवृत्ति में अधिक महत्त्वपूर्णता की दृष्टि एवं अपने लाभ की दृष्टि अवश्य होती है।
प्रश्न यह खडा होता है कि सब से बडा-सब से अधिक महत्त्वपूर्ण एवं सब से अधिक लाभदायक दायित्व कौन सा है? वह है अपनी आत्मा का दायित्व । आत्महित की जिम्मेदारी । सांसारिक व्यवहारों में सब से उपर 'शरीर' होता है। उसके लिये व्यक्ति स्वजन-संपत्ति-समाज सभी की उपेक्षा करता है । लेकिन शरीर भी तो नश्वर है । वह रुग्ण होता है, बुढ़ा होता है और एक दिन स्मशान में राख हो जाता है।
शरीर हम नही है। हम आत्मा है। आत्मा ही हमारा स्वरूप है। अनादिकाल से वह इस संसार में दुःखी हो रही है। यदि आत्मा के दायित्व को हम निभा ले, तो हमेशा हमेशा के लिये हमारी आत्मा सभी कष्टों से- सभी दुःखों से मुक्त हो सकती है, एवं शाश्वत सुख को पा सकती है। बाकी स्वजनसंपत्ति-परिवार-शरीर सब कुछ बिछडनेवाला है यह निश्चित है।
व्यक्ति अत्यंत रुग्ण हो जाती है तब सांसारिक दायित्वों की बात नहीं आती । वह मर जाये तब भी यह बात नहीं आती । बेटा मा-बाप से अलग हो जाये, तब भी यह बात नहीं आती। पति या पत्नी तलाक लेने का प्रयास करे, तब भी यह बात नहीं आती। ऐसे मौकों पर हज़ारों बहाने मिल जाते है। केवल आत्मा के दायित्व को पूरा करने के लिये कोई प्रयत्नशील बने, तब उस पर सब तूट पडते है, एवं तरह तरह के दायित्व की बात करते है । यह वास्तव में अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
संयमार्थी व्यक्ति को चाहिये कि जो ज्ञान और विवेक उसने खुदने पाया है, उसे परिवार को भी दे एवं परिवार के साथ संयम का स्वीकार करें । यदि परिवार की इतनी समजशक्ति या शरीरशक्ति नहीं है, तो कम से कम अपनी आत्मा को तो संयम की प्राप्ति अवश्य करवाये । यतः जलते हुए घर में रहना
-प्रियम् (मागसर कृष्ण ८,२०७३, भीनमाल)