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श्रमण सूक्त
२५७ कोह माण च माय च लोभ च पाववड्डण।
(द ८ ३६ क, ख) क्रोध, मान, माया और लोम-इनमें से प्रत्येक पाप को बढाने वाला है।
२५८ जुत्तो य समणधम्मम्मि अट्ठ लहइ अणुत्तर।
(द ८ ४२ ग, घ) श्रमण धर्म मे लगा हुआ मुनि अनुत्तर-फल को प्राप्त होता है।
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२५६ जोग च समणधम्मम्मि जुजे अणलसो धुव।
(द ८ ४२ क, ख) मुनि आलस्य रहित हो। वह योग (मन, वचन और काया) को सदा श्रमण-धर्म मे नियोजित करे।
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