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१५१ भूयाणमेसमाधाओ हब्बवाहो न ससओ।
(द ६ ३४ क, ख) निसन्देह यह हव्यवाह (अग्नि) जीवो के लिए घातक है।
१५२ त पईवपयावट्ठा सजया किचि नारभे।
(द ६ ३४ ग, घ) सयमी प्रकाश और ताप के लिए अग्निकाय का कुछ भी आरम्भ न करे।
१५३ तेउकायसमारभ जावज्जीवाए वज्जए।
(द६ ३५ ग, घ) मुनि जीवन-पर्यन्त अग्निकाय के समारंभ का वर्जन
करे।
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१५४
अनिलस्स समारंभ बुद्धा मन्नंति तारिस।
(द ६ ३६ क, ख) बुद्ध पुरुष वायु के समारंभ को अग्नि समारम्भ के तुल्य
मानते हैं।