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प्राक्कथन
श्रमण भगवान् महावीर का जन्म-नाम वर्द्धमान था। उन्होने ३० वर्ष की अवस्था मे गृह-त्याग कर मुनि जीवन अगीकार किया और तभी से कठोर-दीर्घ तपस्या, ध्यान और प्राय मौन-साधना मे जीवन को लगा दिया। वे शरीर की सार-सभाल नहीं करते थे। उसे आत्मसाधना के लिए न्यौछावर कर दिया- "वोसठ्ठचत्तदेहे-मुत्तिमग्गेण अप्पाण भवेमाणे विहरई।" उल्लेख है कि तीर्थकरो मे सबसे उग्र तपस्वी वर्द्धमान थे-“उग्ग च तओकम्म विसेसओ वद्धमाणस्स।" बारह वर्ष से कुछ अधिक अवधि तक वे इसी तरह आत्म-साधना और चिन्तन मे लगे रहे।
इस साधना-काल मे उन्हें अनेक कष्ट उठाने पडे। वे सर्प आदि जीव-जतु और गीध आदि पक्षियो द्वारा काटे गये। हथियारो से पीटे गये। विषयातुर स्त्रियो ने उन्हे मोहित करने की चेष्टाए की। इन सभी स्थितियो मे वर्द्धमान आत्म-समाधि मे लीन रहे। लोग उनके पीछे कुत्ते लगा देते, उन्हे दुर्वचन कहते, लकडियो, मुट्ठियो, भाले की अणियो, पत्थर तथा हड्डियो के खप्परो से पीटकर उनके शरीर मे घाव कर देते। ध्यान अवस्था मे होते तब लोग उन पर धूल बरसाते, उन्हे ऊचा उठाकर नीचे गिरा देते, आसन पर से नीचे ढकेल देते।
वर्द्धमान ने इन सारे उपसर्गो और परीषहो को अदीन भाव से, अव्यथित मन से, अम्लान चित्त से, मन-वचन-काया को वश मे रखते हुए सहन किया। अनुपम तितिक्षा और समभाव का परिचय दिया। इसी कारण वर्द्धमान को लोग वीर-महावीर कहने लगे।