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श्रमण सूक्त
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समुयाण उछमेसिज्जा जहासुत्तमणिदिय । लाभालाभम्मि संतुट्ठे पिडवाय चरे मुणी ||
(उत्त ३५ १६)
मुनि सूत्र के अनुसार, अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ की एषणा करे। वह लाभ और अलाभ से सन्तुष्ट रहकर पिण्ड-पात ( भिक्षा) की चर्या करे ।
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