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श्रमण सूक्त
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एगतरते रुइरस भावे अतालिसे से कुणइ पओस ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले
न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।। ( उत्त ३२ ६१ )
जो मनोहर भाव मे एकान्त अनुरक्त होता है और अमनोहर भाव मे द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक पीडा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमे लिप्त नहीं होता।
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