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श्रमण सूक्त
(२१४
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अचेलगस्स लूहस्स
संजयस्स तवस्सिणो। तणेसु सयमाणस्स
हुज्जा गायविराहणा।। आयवस्स निवाएणं
अउला हवइ वेयणा। एवं नच्चा न सेवंति तंतुजं तणतज्जिया।।
(उत्त २ : ३४, ३५)
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अचेलक और रुक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास पर सोने से शरीर में चुभन होती है।
गर्मी पड़ने से अतुल वेदना होती है-यह जानकर भी तृण से पीडित मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते।