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श्रमण सूक्त
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अणासवा थूलवया कुसीला
मिउपि चण्ड पकरेति सीसा। चित्ताणुया लहुदक्खोववेया पसायए ते हु दुरासय पि।।
(उत्त १ १३)
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आज्ञा को न मानने वाले और अट-सट बोलने वाले कुशील शिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। चित्त के अनुसार चलने वाले और पटुता से कार्य को सम्पन्न करने वाले शिष्य, दुराशय गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं।
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