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साम्प्रदायिक स्वरूप श्रथवा षट्स्थल - शास्त्र
लिए ही मनुष्यका सारा प्रयत्न है । जिसने इसे प्राप्त कर लिया वह कृत-कृत्यः हो जाता है । कृतार्थ हो जाता है । शाश्वत सुख - साम्राज्यका स्वामी बनता है । फिर उसके पास दुःख कभी फटकता ही नहीं ।
अव तक छः अंगस्थल और लिंगस्थलोंका संक्षेपमें विवेचन किया गया । : अब इन स्थलोंके परस्पर संबंधका भी जरा विचार करें । श्रंगस्थल के त्यागांग,. भोगांग और योगांगका संबंध क्रमशः लिंगस्थलके इष्टलिंग, प्राणलिंग और भाव -- लिंगसे है | 'त्यागांग ' के 'भक्त' और 'महेश' स्थलका संबंध 'इष्टलिंग' के 'श्राचारलिंग' और 'गुरुलिंग' से है 'भोगांग' के 'प्रसाद' और 'प्रारणालिंगी' का संबंध 'शिवलिंग' और 'चरलिंग' से है । और 'योगांग' के 'शरण' और 'ऐक्य-स्थल'का संबंध 'भावलिंग' के 'प्रसादलिंग' और 'महालिंग' से है । इन छः अंगस्थलों और लिंगस्थलोंमें शक्ति और भक्तिका अधिष्ठान है । वचन - साहित्य में उन-उन स्थलोंमें स्थित शक्ति और भक्तिका सुंदर विवेचन आया है । लिंगस्थल के प्राचारलिंग, गुरुलिंग, शिवलिंग, चरलिंग अथवा जंगमलिंग, प्रसादलिंगतथा महालिंग इन छः स्थलोंमें शिव-शक्तिकी क्रमशः क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, श्रादिशक्ति, पराशक्ति तथा चित्तशक्तिका अधिष्ठान है । और छः अंगस्थलोंमें क्रमशः भक्तस्थल में सद्भक्ति, महेशस्थल में नैष्ठिका भक्ति, प्रसादिस्थल में श्रवधानभक्ति, प्राणलिंगीस्थल में अनुभाव भक्ति, शरणस्थल में ग्रानंद - भक्ति और ऐक्यस्थल में समरस-भक्तिका अधिष्ठान. होता है ।
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मूलतः अंगके और लिंगके ग्रथवा जीवके और शिवके ये छः स्थल हैं ।" इनके संमिश्ररणसे ३६-१०१ तथा २१६ स्थल बना लिये गये हैं । यह सब परस्पर भिन्न, अथवा इन छः स्थलोंसे अतिरिक्त अथवा छः स्थलोंके विरोधी नहीं है । भक्तस्थलका अतिक्रमण करके महेशस्थल में प्रवेश किये हुए भक्त के लिए भक्तस्थलके श्राचार-विचार छोड़ने चाहिए, ऐसा नहीं है । भक्तस्थल के साधकको महेशस्थलका प्राचरण नहीं करना चाहिए, ऐसा भी नहीं है । वसवे - श्वरके जीवनका यदि अध्ययन किया जाए तो ऐक्यावस्थाको प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने भक्तस्थलका प्रचार नहीं छोड़ा था और उनको किसीने 'ऐक्यभक्त ' नहीं कहा । जब कभी उनके विषय में अथवा उनकी साधना के विषय में किसीनेकुछ कहा तब 'परमभक्त' अथवा 'भक्ति भंडारि ' ही कहा । इनं छः स्थलोंके - अलावा ३६ स्थल, अथवा १०१ स्थल, अथवा २१३ स्थल केवल वौद्धिक विलास - - सा है । साथ-साथ यह भी कह सकते हैं कि व्यवहार में उसका कोई खास प्रयो-. जन भी नहीं है । यह मूल आगमोंमें नहीं है । केवल वचनकारोंने इसका विकास किया है । इसका विकास इस प्रकार हुग्रा है : जैसे भक्तका भक्त, भक्तका महेश, भक्तका प्रसादि, भक्तका प्राणलिंगी, भक्तका शरण, भक्तका