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साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल - शास्त्र
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है । अंगकी व्याख्या करते समय सूत्रकारों ने कहा है, "ग्रम् इति ब्रह्म सन्मात्रं गच्छ - तीति गमुच्यते !" अर्थात् ब्रह्मकी और चलनेवाला तत्व ही अंग है । शिव शक्ति-मुख - से सृष्टिका निर्माण करता है । श्रौर भक्ति-मुखसे अंगको मुक्त करता है । 'परमार्थकी दृष्टिसे शक्ति और मायामें कोई अंतर नहीं है, क्योंकि वे दोनों शिव की प्रवृत्तियां हैं । शक्ति और भक्ति अथवा प्रवृत्ति और निवृत्ति शिव के श्वासनिश्वास हैं । शिव ही लिंग-स्थल में शक्तिके रूपसे श्रीर अंगस्थल में भक्ति के रूपसे वास करता है । ग्रंग और लिंगके अलग-अलग छः स्थल हैं । लिंग में इष्ट लिंग, प्राण लिंग और भाव लिंग, ये तीनों प्रकार हैं । इन तीन के दो-दो प्रकार बने । जैसे इष्ट लिंग के गुरू लिंग और आचार लिंग, प्राण लिंगके प्रसाद लिंग और चर लिंग तथा भाव लिंगके शिव लिंग और महा लिंग । ये छः लिंग स्थल हैं ।
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इन लिंग स्थलोंकी भांति छ: अंग स्थल भी हैं । प्रथम, इसके भी त्यागांग, भोगांग, और योगांग, ये तीन भेद हुए । प्रत्येकके दो-दो प्रकार वने । जैसे त्यागांगका 'भक्त' और 'महेश', भोगांग का 'प्रसाद' और 'प्राणलिंगी' तथा योगांग'के' 'शरण', और 'ऐक्य' । ये छ: अंगस्थल कहलाते हैं । इन छः स्थलोंका अर्थ और इनके लक्षणोंको जान लिया कि षट्स्थलीकी पूर्ण बौद्धिक जानकारी हो गई ।
स्थूल शरीर के साथ सतत रखने के लिये, और पूजादिके श्राश्रयरूप, गुरु -दीक्षा के समय जो लिंग देता है उसे 'इष्ट लिंग' कहते हैं । प्राणादिके साथ जिस सूक्ष्म लिंगका संबंध रहता है वह 'प्राणलिंग' है । गुरु मंत्र दीक्षा के समय यह मंत्रके रूपमें ग्रपनेसे दीक्षित शिष्यको देता है । केवल चिन्मय स्वरूप लिंग, श्रात्म लिंग, जो साधककी श्रात्मासे ही संबंधित है 'भाव लिंग' कहलाता है । गुरु ज्ञानोपदेश द्वारा वह अपने शिष्यको देता है । इसमेंसे इष्ट लिंग प्रानंदरूप होता है । प्राण लिंग चिद्रूप होता है । और भाव लिंग सद्रूप होता है । इन लिंगस्थलोंके अनुरूप उनसे संबंधित जो अंग रूप हैं व उन्हें देखें ।
वाह्य विषयादिकी आसक्ति छोड़कर जो लिंगकी उपासना करता है उस स्थूल शरीरको 'त्यागांग' कहते हैं । विषयासक्तिके त्यागके बाद सभी भोगोंको भगवान्का प्रसाद मानकर भोगनेवाला 'भोगांग' कहलाता है । इस 'भोगांग' स्थल से साधक शिवयोगी बनता है । सब वासनात्रोंसे मुक्त होनेके वाद, ज्ञानोदय होता है | ज्ञानोदय होने से शरीर शुद्ध होता है । तब साधक योगांग में शिवज्ञानसे युक्त होकर सर्वत्र शिवका ही दर्शन करता है । उसके लिए 'सर्वं शिवमयं जगत्' होता है । साधक के जीवन में शिवयोग और उससे मिलनेवाला आनंद इस परम सुखमें व्याप्त हो जाता है, इसलिए इसको योगांग कहते हैं । वचनकारों ने अपने वचनोंमें इन छः स्थलोंका सविस्तर वर्णन किया है ।
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