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पागल विप्रगरण स्वयं मातंगी गर्भ संभव जेष्ठ पुत्र होनेकी बात नहीं जानते; शिवभक्त इस कुलके हैं, उस कुल के हैं, कहनेवाले विप्र पंचम लोगो सुनो तुम्हारा पुराणवचन
श्रीनाथपुरुषः षंडः । चंडालो द्विजवंशजः ॥ नजाति भेदो लिंगार्चने । सर्वे रुद्रगरणाः स्मृताः ॥
चांडाल, पंचम, कव्विलाभः ठठेरा, सुनार, कुंभकार, धोबी, धीवर, शिकारी आदि कहकर हमारे शिव भक्तोंकी निन्दा करते हो। तुम्हारे उत्तम सत्कुलोंकी ओर उंगली उठाकर दिखायें हम ? मार्कण्डेय पंचम है, सांख्य स्वपच है, कश्यप लोहार है, रोमज ठठेरा है, अगस्त्य कव्विल, वसिष्ठ डोम है, व्यास धीवर है, दुर्वासा चमार है, कोंडिल नाई है । तुम्हारे वासिष्ठमें कहा है
वाल्मीकीच वसिष्ठश्चागस्त्य मांडव्यगौतमाः ॥ पूर्वाश्रये कनिष्ठाश्च: दीक्षया स्वर्गगामिनः ॥
"यह जानकर अपने कुछ पूर्वजोंका विचार कर कहो, अपने गोत्रको स्मरण कर देखो, अपना अहंकार छोड़ो, शिवभक्त हो वास्तविक कुलज है । इसपर विश्वास नहीं होता तो देखो तुम्हारे वेद क्या कहते हैं, अथर्वण वेदका वचन है - " मातंगी रेणुकागर्भसंभवादिति कारुण्यमेधावी रुद्राक्षिरणा लिंगधारणाय `प्रसाद स्वीकुर्वन् ऋषीणां वर्णश्रेष्ठो (प्र) घोर ऋषिः संकर्षणात् वेदं ब्रुवति " (१) " इत्यादि वेदवचन श्रुतिमार्गेण "
वायवीय संहितामें
ब्राह्मणोऽपि चांडालोऽपि । दुर्गा गः सुगुरगोऽपिवा ॥ - अस्मरुद्राक्ष कंठेवा | देहे वासः : शिवं व्रजेत् ॥ शिव रहस्य में -
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ग्रामस्य मलिनं तोयं ।
यथा वं सागरंगतमः ॥ शिव संस्कार संपन्तेः । जातिभेदं नः कारयेत् ॥
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"सुनो भाई ! लिंगाराधनासे वर्ग सब मिट जाते हैं । ये सब ऋषि गुरु ‘करुणासे, विभूति रुद्राक्ष धारण करके, लिंगार्चन करके पादोदक प्रसाद ग्रहण -करनेसे वर्ण श्रेष्ठ वने हैं जी; इसलिए हमारे "कूडल संगम देव" को जानकर पूजनेवाला ही सद्द्ब्राह्मण है, अन्यथा चांडाल है जो !"
वचन - साहित्य में ऐसे अनेक वचन है, जो अपनी प्रेरणा के स्रोतको ओर संकेत करते हैं । शैवमत भारतका प्राचीनतम मत है । जैसे ! शिव, सर्वोत्तमत्व' --मतका मूल सिद्धान्त है वैसे ही 'वीरशैव शैवोत्तम है !' चोथो या पांचवीं
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