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साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल-शास्त्र
पिछले दो अध्यायोंमें वचन-साहित्यका बहिरंग परिचय दिया गया है, अर्थात् साहित्यका स्वरूप, साहित्यकारोंका व्यक्तित्व, जीवन आदिके परिचयके वाद उसके अन्तरंगका परिचय पाना आसान होगा। उनके अन्तरंगके परिचयके अन्तर्गत उनकी चिंतन-पद्धति, उनकी परम्परा, उनका साध्य , साधन, धार्मिक तथा नैतिक जीवनके आचार-विचार प्रादिका सांगोपांग विवेचन और विश्लेषण आता है । वचन-साहित्य कहते ही, वह वीरशैवोंका सांप्रदायिक साहित्य है इस प्रकारकी भ्रांत धारणा पाई जाती है। और आज सांप्रदायिक कहते ही सव नाक-भौं सिकोड़ने लग जाते हैं। यहाँ सांप्रदायिक शब्दका अर्थ एक विशिष्ट उपासनात्मक पद्धतिसे है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसके लिए सम्प्रदाय शब्दके स्थान पर अनुगम शब्द अधिक अच्छा रहेगा। अनुगमका अर्थ है अनुकरणपरम्परा । सम्प्रदायका भी वही अर्थ है ।।
अस्तु, इसमें संशय नहीं कि वचन-साहित्यमें एक विशिष्ट प्रकारकी उपासना-पद्धति है । उस उपासना-पद्धतिका अनुकरण करनेवालोंका अलग समूह है । उस समूहकी अपनी विशिष्ट परम्परा है । इसको वीरशैव सम्प्रदाय कहते हैं । वीरशैवोंकी इस उपासना-पद्धति और उनकी परम्पराको वीरशैवानुगम भी कह सकते हैं ! यह वीरशैवानुगम क्या है, यह जानने के लिए वचनसाहित्यके अध्ययनकी आवश्यकता है। यह अध्ययन अनिवार्य है। इतना ही नहीं, यह भी निःशंक होकर कह सकते हैं कि वीरशैवानुगमके सांगोपांग अध्ययनके लिए वचन-साहित्यके अध्ययन के पश्चात् अन्य किसी शास्त्रके अध्ययनकी किंचित् भी आवश्यकता नहीं है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वचनसाहित्यमें वीरशैवानुगमके अलावा अन्य कोई विषय है ही नहीं। वचनसाहित्यमें वीरशैवानुगमका सम्पूर्ण ज्ञान है । साथ-साथ मानव-कुलके आंतरिक जीवनको ज्योतिर्मय कर देनेवाले त्रिकालाबाधित सत्-तत्त्वका बोध भी है । उस वोधका विवेचन करनेसे पहले उनकी उपासना-पद्धतिका विचार करें। इससे वचनकारोंकी चिंतन-पद्धतिमें पानेवाले पारिभाषिक शब्दोंका समुचितज्ञान होगा। तत्पश्चात् उनके सूक्ष्म चिंतनको समझने में अधिक सुविधा होगी। . वचनामृतके अठारहवें अध्यायमें इस विषयके वचन आये हैं। उस स्थान पर भी पट्स्थल-शास्त्रका कुछ विवेचन किया है। इस अध्यायको समझने में वे वचन और उन वचनोंको समझने में यह अध्याय सहायक होगा । इन सब बातों