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________________ वचन-साहित्य-परिचय कहकर प्रशंसा की है। ___ बसवेश्वर, अल्लम प्रभु और चन्न बसव सदा-सर्वदा एक-दूसरेका बड़प्पन स्वीकार करते रहे हैं। इन तीनोंमें प्रत्येक मानो 'मुझसे तू बड़ा' कहनेकी होड़ लगा रहा है । यह तीनों अनुभम-मंटपके आधार-स्तंभ-से रहे हैं । यह तीनोंकी अन्योन्य-प्रीति अादर्श है । बसवेश्वरने ही चन्नवसवको दीक्षा दी थी। चन्नबसवने लिखा है, "बसवेश्वरसे में सर्वागलिंगी वना, मेरे श्रीगुरु वसवेश्वर हैं ।" अल्लम महाप्रभुके आनेसे पहले ही चन्नबसवने अपने ज्ञान-चक्षुसे भविष्य देखकर बसवेश्वरसे कहा था, 'तुम्हारा धर्म-प्रताप जानकर महाजंगम अल्लम तुम्हें खोजते हुए यहां पा रहे हैं !" चन्न वसवने जैसी भविष्यवाणी की थी वैसा ही हुअा अल्लम महाप्रभु सिद्धरामय्याको साथ लेकर कल्याण में आये। वहांके शून्य-सिंहासन पर विराजमान रहे । वहीं रहकर धर्म-कार्य करते रहे। इस बीच में अल्लम प्रभु एक बार तीर्थ-यात्राके लिए कल्याण छोड़कर गये थे । यात्रामें ही 'जीवन मुक्तावस्था' प्राप्त कर पुनः अनुभव-मंटपके शून्य-सिंहासन पर लौट आये। (१०) बसवेश्वरके प्रयाससे अनुभव-मंटप संघटित हुआ और अल्लम महाप्रभु उसके अध्यक्ष बने । अनुभव-मंटप शिवशरणोंका संघटन था। अल्लम प्रभु उसके अध्यक्ष महाजंगम थे । जंगमका अर्थ है शैव संन्यासी । अधिकतर जंगम एक जगह स्थिर होकर नहीं रहते। वह बनवासीमें पैदा हुए थे। वनवासी आज कारवार जिलेके सिरसी तहसीलका एक गांव है । किंतु बहुत प्राचीनकाल में वहां कदंव-वंशके राजाओं की राजधानी थी। वह सुंदर और महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र भी रहा है । प्राज भी वहां कुछ मंदिर और शिलामूर्तियां देखने योग्य हैं । अल्लम प्रभुके पिताका नाम नागवसाधिपति था और माताका नाम सज्जनदेवी । दोनों महान शिवभक्त थे । कन्नड़ साहित्य में अल्लमको अत्यन्त गौरवसे अल्लम प्रभु, अल्लम महाप्रभु, प्रभुदेव आदि कहा है। उनकी मुद्रिका 'गुहेश्वरा' है । अल्लम प्रभुने वैराग्य होते ही अनुभव किया, "विना गुरु कारुण्यके मुक्ति नहीं होगी।" गुरुके विषय में विचार करने लगे। उन्होंने निर्णय किया, "मेरे लिए अनुभिषदेव ही सच्चे गुरु हो सकते हैं।" वे गुरुके पास गये । गुरु समाधिस्थ थे। मुग्ध थे । मौन थे । उपदेश करने वाले नहीं थे। दीक्षा देनेवाले नहीं थे। यह सब जानकर उन्होंने सोचा, "मेरी हृदयस्थ बोध-मूर्ति ही मेरा गुरु है”। ___अल्लम प्रभुने अनुमिषदेवके चरणों में प्रणाम किया और चल पड़े। वहांसे वे शिवाद्वैत तत्त्वका निरूपण करते-करते, वचनामृतको कहते-कहते, जो सामने प्राया है उसे मोक्षमार्गका अनुयायी बनाते-बनाते देशभ्रमण करने लगे।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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