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वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय अनुभव-मंटपको शिव-मंटप भी कहा है । अनुभवका अर्थ है साक्षात्कारका अनुअनुभव । उस अनुभवको वचनकार अत्यंत महत्व देते थे। तभी उन्होंने अपनी संस्थाको भी अनुभव-मंटप यह नाम दिया। उनकी यह मान्यता थी, 'अपने में स्थित अनुभवसे श्रेष्ठ और कुछ नहीं !' अपने अनुभवके विषय में जिनकी इतनी निष्ठा है वे भला अपनी संस्थाको इसके अलावा दूसरा कोनसा नाम देते ?
यह अनुभव-मंटप कल्याणमें था । कल्याण कलबुर्गासे ६० मील पर स्थित है। वह पहले द्वितीय चालुक्य वंशकी राजधानी थी। बादमें उसे विज्जलने अपनी राजधानी बनाया । बिज्जलने शा० श० १०७६ तक राज्य किया। वह जैन था । किंतु बसवेश्वरको बहुत मानता था । बसवेश्वर पहले उसके राज्यमें किरानी थे । बादमें अपनी योग्यतासे मंत्री बने । वह बड़े भक्त थे । सत्य-धर्म का प्रचार करनेकी उनमें तीव्र उत्कंठा थी। 'यही मेरे जीवनका उद्देश्य है' ऐसा उनका दृढ़ विश्वास था। इसलिए उन्होंने अनेकानेक शरणोंको अपने घरमें आश्रय दिया । यदि उसी युगमें लिखी पुस्तकों पर हम विश्वास करें तो 'शून्य संपादने' नामक ग्रंथके ३२०वें पृष्ठ पर लिखा है, "करीव एक लाख चानवे हजार जंगम (शैव संन्यासी) उनके आश्रयमें थे।" यह संख्या कहाँ तक ठीक है, इस पर संशयके लिए स्थान होने पर भी इसमें शक नहीं कि वहुतसे शैव संन्यासी इनके आश्रयमें थे। इस अनुभव-मंटप अथवा श्री वसवेश्वरके घरके विषयमें इसी पोथीके ६०वें वचनमें कहा है, "कल्याणमें श्री बसवेश्वरका घर होनेसे मृत्युलोक में भक्तिका साम्राज्य हो गया।" उसी पुस्तकका ८५वां वचन कहता है, "वह (बसवेश्वर) प्रथम-नायक था और अनेक भक्तोंके अंतरंगका साथी था ।" इसी पोथीका ३१६वां वचन कहता है, 'अनुभव मंटपके शून्य सिंहासन पर चढ़नेके लिए श्री अल्लभ प्रभु वसवेश्वरके घर पर गये ।" इस बचनसे यह वात अपने आप सिद्ध हो जाती हैं कि अनुभव मंडप श्री बसवेश्वरके घरमें ही था। अल्लम प्रभु अनुभव-मंटपके अध्यक्ष थे। उन्हींकी अध्यक्षतामें आध्यात्मिक साधना, सिद्धि, साक्षात्कार, आदि विषयों में ज्ञान-चर्चा होती थी। अल्लम प्रभु अपने शून्य सिंहासन पर बैठकर अन्य वचनकारोंसे, अनुभावियोंसे प्रश्न पर प्रश्न पूछकर उनके अनुभवोंकी गहराई देखते थे। अनुभव-मंटपका यह शून्य सिंहासन किसी मठके महंतकी गद्दी नहीं थी। किंतु यह अंगगुण, अर्थात् शरीर गुणों को त्यागकर लिंगगुण अर्थात् आत्मगुणोंमें स्थित होनेकी विशिष्ट स्थिति थी। उसको हम सिद्धावस्था कह सकते हैं । अल्लम प्रभु अपनी सिद्धावस्था में लीन होकर शून्य बनकर रहते थे। यही वचनकारोंका 'शून्य पद' है । अल्लम प्रभु सदैव लिंगमें समरस होकर रहते थे। शून्य होकर रहते थे। महात्मां कवीरके शब्दोंमें कहना हो तो 'सहज समाधिमें लीन रहते थे।'