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________________ वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय २७ समय (शा० श० १०७२) वचन शैलीमें जो अभिव्यंजना शक्ति, जो साहित्यिक सौष्ठव, जो प्रवाह और जो तीव्रता पाई जाती है वह पाँच-दस वर्षोंकी साधनाका परिणाम नहीं हो सकता। इसके पहले कमसे कम एक-दो शतक इस शैलीकी साधना हुई होगी। तभी इस शैलीमें श्री वसवेश्वरके कालमें ‘पाई जानेवाली साहित्यिक सुघड़ता, सुन्दरता, सरसता, और सौष्ठव आदिका विकास हुआ होगा । दूसरी दृष्टि से भी, श्री वसवेश्वरके काल में कर्नाटक में जो 'धर्म-जागृति पाई जाती है वह भी दस-पंद्रह वर्षोंकी साधनाका परिणाम नहीं हो सकती। उसका पूर्वेतिहास कुछ अवश्य होगा। श्री वसवेश्वर युगमें उसका रूप अपने अत्युच्च शिखरको पहुँच चुका था। इतना ही नहीं श्री बसवेश्वरके कालमें कुछ वचनकार ऐसे थे जो आयुमें उनसे अधिक थे । श्री सकलेश मादरस श्री बसवेश्वरसे कमसे कम ५०-६० साल बड़े थे, ऐसा विद्वानोंका मत है । वह कल्लुकुरीके राजा थे। उनके विषयमें जो कुछ जानकारी मिलती है उनसे लगता है कि 'जब वह राज्य करते थे तब भी वैराग्य-संपन्न साधुकी तरह रहते 'थे।' अपने अंतिम दिनोंमें वह विरक्त हुए । पूर्व-परंपराके अनुसार अपना राज्य 'पुत्रको सौंप कर कल्याणमें आकर रहने लगे। कल्याण पानेके पूर्व उनको शरण मार्गका पूर्ण ज्ञान था इसका भी प्राधार मिलता है। साथ-साथ कल्याणमें आनेके पूर्व वह अपने पितासे भी मिले थे जो शरण मार्गसे साधना करते हुए श्री शैलमें थे। पिताने ही उनको कल्याण जानेको कहा था। आज भी सकलेश मादरसके वचन मिलते हैं, किंतु उन बचनोंके विषयमें निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि वे उनके कल्याण आनेके वाद लिखे गये थे अथवा उसके 'पहले ! यह समझने का कोई साधन अव तक उपलब्ध नहीं है। __ इसी प्रकार श्री देवरदासिमय्या नामके वचनकार श्री वसवेश्वरसे पूर्वकालीन हैं। उनका काल विद्वानोंने शा० श० ६३०-६८२ सिद्ध किया है । कन्नड़ भाषाके प्राचीन कवियोंके जीवनवृत्तकी जानकारी देनेवाला 'कविचरित'कार' भी यही कहता है । अर्थात् देवरदासिमय्या, बसवेश्वरसे बहुत पहले हो चुके हैं। और उनके वचन भी आज प्राप्त हैं। वह पर्याप्त सुघड़, गंभीर भावसे भरे, प्रौढ़, गहरी अभिव्यंजना-शक्तिसे ओत-प्रोत हैं। इतना ही नहीं, वह कहते हैं, 'एक-दो क्षण मुझे गूंजने वाले शिवशरणोंके वचन सुनाए जायं तो मैं भगवानको भी त्याग दूंगा।' इस वचनसे हम जान सकते हैं कि श्री बसवेश्वर से भी पहले शिव शरणोंके वचनोंकी ओर किस आदरसे देखा जाता था । देवरदासिमय्या जिन 'गूंजनेवाले वचनोंको सुननेके लिये भगवानको भी छोड़ सकते हैं वे उनके अपने वचन नहीं रहे होंगे ! वे उनसे पूर्वकालीन शिव शरणोंके ही होंगे ! उसी प्रकार श्री बसवेश्वर, अल्लम प्रभु आदि ने भी 'आद्यर वचन'
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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