SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधि-निषेध २७७ (४६४) सरकनेवाले सांपसे नहीं डरता। आगकी लपटसे नहीं डरता । तलवारकी नोकसे नहीं डरता किंतु एकसे डरता हूं। डरता हूं परस्त्री रूपी जूएसे । भय क्या है यह न जाननेवाला रावण भी नष्ट हुना। डरता हूं उससे कडलसंगमदेवा ? (४६५) कहां शिवपूजा और कहां विषयोंकी मिठास ? उन विषयोंकी मिठासके नशेमें शिवपूजाको छोड़कर, वेश्याका झूठन खानेमें न हिचकनेवालेको क्या कहूं रामनाथा। (४६६) अपनी ही लाई हुई स्त्री अपने ही सिरपर चढ़ बैठी । अपनी ही लाई हुई स्त्री अपनी ही गोदमें चढ़ी। अपनी ही लाई हुई स्त्री ब्रह्माकी जिह्वापर चढ़ी। अपनी ही लाई हुई स्त्री विष्णुकी छातीपर चढ़ी। इसलिए स्त्रा स्त्री नहीं है राक्षसी नहीं है वह स्वयं कपिलसिद्धमल्लिकार्जुन रूप है। टिप्पणी:-वचनकारोंने क्रमशः गंगा, पार्वती, सरस्वती, लक्ष्मीका संदर्भ देकर स्त्रीका महत्त्व समझाया है । स्त्रीको भोग्य न समझकर प्रत्यक्ष देवता स्वरूप देखना चाहिए । इससे मनुष्यकी विषय-वासना दुर्बल होगी । उसके लिए इंद्रिय निग्रह यासान होगा। ___ (४६७) शरणोंको श्रोत्रसे ब्रह्मचारी होना चाहिए, त्वचासे ब्रह्मचारी होना चाहिए, नासिकासे ब्रह्मचारी होना चाहिए, नेत्रोंसे ब्रह्मचारी होना चाहिए जिह्वासे ब्रह्मचारी होना चाहिए, इस प्रकारसे सर्वेन्द्रियोंसे ब्रह्मचारी होकर कूडलसंगमदेवको अपना बना लेनेके लिए प्रभुदेव ब्रह्मचारी बने । टिप्पणी:-केवल स्त्री संभोग छोड़ना ही सच्चा ब्रह्मचर्य नहीं है। काया वाचा मनसे उस विषयकी कल्पना तक न करते हुए सतत ब्रह्म-चिंतनमें रत रहना ही सच्चा ब्रह्मचर्य है । वचनकारोंने संत वचनोंके महत्त्वके विषय में भी बहुत कुछ कहा है। (४६८) हाथी मिले, लक्ष्मी मिले, कोई राजा राज देने लगे तो भी नहीं लूंगा। तुम्हारे शरणोंका कहा हुआ एक वचन एक स्थान पर रखा तो तुम्हें ही रखा रामनाथा । (४६६) दूध लवनेवाले स्तनमें जैसा गुड़सा कीचड़, चीनीसी रेत और अमृतकीसी लहरें होती हैं, वैसे ही श्राद्योंके वचन; उन श्राद्योंके वचनोंको छोड़ कर दूसरा कुवां खोदकर खारा पानी पीनेकी सी हुई मेरी स्थिति । तुम्हारे वचन न सुनकर अन्य पुराणोंको सुनकर नष्ट हुअा मैं कूडलसंगमदेवा। (४७०) आचार-विचारोंकी गलतीमें शरणोंके वचनोंके बिना दूसरा कोई वाद नहीं है । शरणोंके वचन मोक्षका स्थान, शरणोंका वचन लिंगका मंदिर है, शरणोंका वचन कलिंगदेवकृत मायाका घातक है।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy