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साधनामार्ग - ज्ञान-भक्ति-क्रिया- ध्यानका संबंध ( समन्वय योग )
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विवेचन —-वचनकारोंकी दृष्टिसे परमात्माको अपना सर्वस्व समर्पण करके परम सुख अथवा परम पद प्राप्त कर लेना ही जीवनका सार सर्वस्व है । सर्वार्पण भावसे उनकी साधनाका प्रारंभ होता है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि साधकको अपने तन, मन, प्रारण और भावसे अर्थात् ग्रपनी क्रिया शक्ति, भावशक्ति, ध्यानशक्ति र बुद्धिशक्ति द्वारा परमात्म-प्राप्तिका सतत प्रयत्न करना चाहिए | इस प्रयत्न से साधक के जीवनका प्रत्येक क्षरण और करण अपने ध्येयकी प्राप्ति में बीतता है । प्रत्येक क्षण उसको अपने ध्येयकी ओर ले जाता है । इन बातोंको भली भांति समझाने के लिए साधककी शक्तियोंको बुद्धिशक्ति, भावशक्ति, क्रियाशक्ति तथा ध्यानशक्ति के नामसे चार भागों में विभाजित किया है ; और पिछले चार अध्यायोंमें इन शक्तियोंके द्वारा साधक कैसे आगे बढ़ता रहता है यह दिखाया गया है । ऐसे विश्लेषरण करते समय यह स्मरण रखना आवश्यक है कि इनमें से कोई एक मार्ग प्रपने में पूर्ण स्वतंत्र नहीं है । पिछले सभी अध्यायों में यह बात स्पष्ट कही गयी है । भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्नभिन्न शक्तियों का न्यूनाधिक मात्रामें विकास होना स्वाभाविक है । सबको अपने में विकसित विशिष्ट शक्तिके प्रयोगके द्वारा साधना पथपर आगे बढ़ना होता है यह स्वभाविक भी है । इसीलिए पिछले चार श्रध्यायोंमें क्रमशः बुद्धि, भाव, क्रिया और ध्यान शक्तिका विवेचन वचनकारोंके वचनों द्वारा ही किया गया है । अव प्रश्न यह है कि उन सब शक्तियोंका परस्पर संबंध क्या है ? और वह कैसा होना चाहिए ? इसपर वचनकारों का जो मत हैं उसको देखनेसे समन्वयं मार्ग अथवा शरणमार्गका यथार्थ वर्णन होगा ।
साधारण मनुष्यको भी इन चारों शक्तियोंकी न्यूनाधिक प्रमाण में जीवनमें श्रावश्यकता होती है । केवल कर्म, श्रथवा भाव, अथवा बुद्धि अथवा ध्यानके सहारे जीवन व्यवहार चलना संभव नहीं । व्यक्ति-व्यक्ति में इन शक्तियों का प्रमारण न्यूनाधिक हो सकता है । किंतु इन चारों शक्तियों का प्रस्तित्व श्रावश्यक है । केवल क्रियाशक्ति मनुष्यको जड़यंत्र बना देगी । केवल भाव शक्ति मनुष्यको अनियंत्रित कर देगी ; उसके जीवनको अनेक प्रकारोंके उफानोंका अखाड़ा बना देगी | केवल बुद्धि शक्ति मनुष्यको क्रिया शून्य बना देगी तथा उसका जीवन सब तरहसे उलझा देगी । और केवल ध्यान शक्ति आश्चर्य विमूढ़ बना