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________________ २५२ वचन-साहित्य-परिचय यह हैं पांच पूर्वयोग ।..."लिंग ही परमात्म बोधक चिन्ह है, यह जानकर, उसीको आधार बनाकर स्वाधिष्ठान, मरिणपूरक, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा, ब्रम्हरंध्र आदि प्रमुख स्थानोंमें ध्यान करना ही ध्यानयोग है। उस लिंगको भाव, इंद्रिय, मन, आदि प्रमुख अंगोंमें धारण करना ही धारणा योग है। सन् क्रिया ज्ञान-योगसे बिना भिन्नताके एकार्थ होना ही समाधियोग है।":..... यह आठ अन्य मतवालोंका अष्टांगयोग है। अन्यों द्वारा किये जाने वाले इस कर्म कौशल में लिंग नहीं है रे !....."अपने आप अपने में स्थित होना ही शिवयोग है देख महालिंगेश्वर गुरु सिद्धेश्वर प्रभु। टिप्पणी:-वचनकारोंने अष्टांग योगको किस प्रकार परिवर्तित करके अपने जीवन में प्रयुक्त किया और सामान्य पातंजलयोग और वचनकारोंके शिवयोगमें क्या अंतर है यह ऊपरके वचनमें स्पष्ट हो गया है। (३४४) इड़ा-पिंगला सुषुम्ना नाड़ीमें प्रात्माका संचार नहीं होना चाहिए ऐसा कहनेवालोंकी बात तो सुनो . .साकारकी खोपड़ीमें निराकारका अमृत पीनेकी बात सत्य कैसे होगी ? वंध्या गायमें दूधका थन कैसे होगा..... आत्माका अस्तित्व तो घटमें स्थित आकाशका अस्तित्वसा है; सूर्यमें स्थित किरणोंके अस्तित्वका-सा है...' शरीरमें बैठे हुए ओंकारका अस्तित्व न जानते हुए ध्वस्त हुए यह कर्मकांडी ! स्फटिक घटमें रखे पानीकी भांति अपने आपको अंतर बाह्य समझ लो रे! निष्कलंक मल्लिकार्जुन लिगमें-सर्वांग लिंग भरित होनेसे पहले लिंगांग योग नहीं है। (३४५) आधार स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि , आज्ञा, नामके षडाधार चक्रोंमें वर्णदल, अक्षर, अधिदेवतामें विलीन होकर दिखाई देनेवाला तत्त्व एक ही है अनेक नहीं। लोग चक्रोंके हिसाव कितावके आधीन होकर नाम रूपके जालमें आ फंसे हैं । जिन योगियोंमें निश्चित ध्येय नहीं है उन ध्येयरहित योगियोंका यह प्रकार देख लो। न देखनेकी वस्तु देखकर पकड़ी है शरणोंने भेदन न करनेकी वस्तुका भेदन करके देखा, असाध्य वस्तुको साध्य करके देखा निज गुरु स्वतत्र सिद्धेश्वरा तेरे शरणोंने। (३४६) आशा, रोष, हर्परूपी इंद्रिय भावोंको स्पर्शकर प्राचारको शिवाचार करके दिखाऊंगा अमृतमय भक्तिसे निर्वचक मनसे भावशुद्ध पूजा. करूंगा, अपनी प्राण शक्तिसे मिलूगा कूडलसंगमदेवा । (३४७) वहनेवाले मनके वायुओंको, उत्साहित करके, मनको स्थिर बनाकर, सगुण ध्यानमें रगड़ते हुए, निर्गुणमें स्थित होना, उस निर्गुण ध्यानमें शक्ति संपादन करके, सगुण निर्गुणमें विलीन होकर सत्यमें मनोलय करनाही निजगु स्वतंत्रसिद्ध लिगेश्वरका परमराजयोग है।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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