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________________ २०२ वचन-साहित्य-परिचय वह भक्त होता है। देह प्रारब्ध कहनेवाला वह अति, और इस विविध । किसी एकको न कहनेवालेको क्या कहेगा गुहेश्वरा । टिप्पणी :-अद्वतियोंका यह मत है कि देह जो मिली है वह प्रारब्धवश : मिली है और ज्ञान भी प्रारब्ध कर्मभोगसे होगा। (१२८) अज्ञानके भुलावेसे इस संसारमें आया था । सब कुछ जान जानेके । अनंतर भला अब व्यग्न क्यों होने लगा ? हृदय-कमलके मध्यमें सत्य स्थापित होनेके पश्चात् तो पाप-पुण्यसे परे हो गया। चतुर्दश भुवनोंमें पूर्णरूपसे शुद्ध निष्पाप ज्योतिरूप प्रकाशने वाले शून्यको देखकर जी उठा देख बसवण्णप्रिय : कुडलसंगैय। (१२६) बरसनेवाली वर्षा यह ऊसर और यह खेत ऐसा देखती है क्या?.. और जलनेवाली प्रागको यह सीधा और यह टेढ़ा-मेढ़ा होनेका भेदभाव होता : है क्या ? गुहेश्वर लिंग को भलावुरा नहीं होता संगबसवण्णा टिप्पणी :-१२८ और १२६ के वचन भगवानके विषयमें हैं ऐसा लगता है किंतु संदर्भानुसार देखा जाय तो वह सिद्धावस्था प्राप्त सिद्ध पुरुषों के लिये हैं। (१३०) लिंग कहो या लिंगैक्य, संग कहो या नि:संग, हुप्रा कहो या नहीं हुआ, और तू कहो या मैं ! चन्नमल्लिकार्जुनलिंगमें घनलिंगेश्य होनेके अनंतर कुछ भी न कहकर मौन रह जाना पड़ता है। (१३१) स्वयं लिंगके अनुभव होनेके पश्चात् क्या देव लोक है. और क्या मनुष्य लोक ? उसमें अंतर ही क्या रहा तव ? कूडलसंगमदेव सब कुछ तू होने के अनंतर भला आलस्य रहेगा कहां ? ... (१३२) आचार, अनाचार, ससीम और असीम, गमन और निर्गमन, धर्म-कर्म, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, भवमोह, इह-पर, ऐसा कुछ भी उभय-संशयः अब नहीं रहा रे ! कुछ भी न रहनेका परम अनुभाव निरवय ही शरण लिग : समरस है गुरुशिव सिद्ध श्वर प्रभु । (१३३) गुण निर्गुण नहीं है वह लिंगैक्य साकार निराकार नहीं है, वह लिंगक्य शून्य निःशून्य नहीं है, वह लिंगैक्य काम निःकाम नहीं है, वह लिंगैक्य. द्वैत-अद्वैत नहीं है, इह प्रकार दीखनेवाला दर्शन. सब स्वयं अपने आप. होते हुए, इस पर दोनोंका अतिक्रमण कर. परिपूर्ण शून्यं होकर अपना प्रतीक भी खोये हुये निरवय लिंगक्य बने हुएको किस उपमासे समझाया जाएगा । अखंडेश्वरा। (१३४) अहंकार भूलकर, देहगुणोंका तिरस्कार कर, इह पर दोनों अपने : आप होनेका भान होने पर ही “सोहम्" भाव स्थिर हुआः। सहज़ उदय स्थिति
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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