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________________ मुक्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है नहीं जानता तुम्हारा "लिंग मध्ये जगत्सर्वम्", मैंतो केवल लिंग-स्पर्शके आनंदमें शिव-शिव रट रहा हूँ। पानी में पड़े अोलेकी तरह भिन्न भावके विना शिवशिव कह रहा हूँ कूडलसंगमदेव । टिप्पणी:--"लिंग मध्ये जगत्सर्वम्"= "सारा विश्व लिंगमें है" का भाव । (५४) न मैं हूँ न तू है ; न स्व है न पर है ; न ज्ञान है न अज्ञान है, न अंदर है न बाहर कूडल संगमदेव शब्दका काम नहीं है । टिप्पणी:--उस स्थितिमें सामान्य मनुष्योंमें पाये जाने वाले ज्ञान-अज्ञान आदि द्वंद्वभाव नहीं होते । वह स्थिति निद्वंद्व है। (५५) तन नष्ट हुआ, मन नष्ट हुआ, स्मरण नष्ट हुआ, भाव नष्ट हुआ, ज्ञान नष्ट हुअा ; इन पांचोंमें मैं स्वयं नष्ट हुग्रा। इस महानाशमें तू भी नष्ट हुग्रा । कलिदेवदेव नामका शब्दमात्र है. "निःशब्द ब्रह्ममुच्यते !" । टिप्पणी:---उस स्थितिमें प्रत्येक प्रकारकी संवेदनशीलता नष्ट होनेके बाद, भगवानकी कल्पना भी नहीं रहती । चित्त मौन हो जाता है । वह मौन, 'निःशव्द ही परात्पर सत्य है । __ (५६) शरीर लय हुआ था, मन लय हुआ था, भाव लय हुए थे, कामनायें लय हुई थीं केवल निज ही रहा था । मैं सीमित शून्य में कलिदेवदेवमें विलीन होकर बिना जड़के वृक्ष की तरह रहा था। (५७) सब प्रकारसे प्रेमीको अपना बनाकर जो मिलन हुआ उसका वर्णन कहने-सुनने के लिये शब्दही नहीं मिल पाये... (५८) शब्द निःशब्द हुए थे कूडल संगमदेवमें विलीन होकर अल्लम प्रभुके चरणों में सब विलीन हो गया था। विवेचन--ऊपरके वचनोंका विषय संकुचित व्यक्ति-भावका संपूर्ण विलय और विशाल विश्व-भाव, अथवा परमात्म भावमें एकत्व प्राप्तिका अनुभव है । वस्तुतः मैं, अथवा स्व, का भाव संपूर्णतया नष्ट होनेसे वह स्थिति अवर्णनीय ही होती है । वह परमानंदकी स्थिति होती है । वह स्थिति पूर्ण सत्य ज्ञानकी है । इसलिये उसके विषयमें उज्वल प्रकाश बोध होनेकी बात कही गयी है। रूपक से ही स्थिति का वर्णन करना संभव है। कहीं कहीं पति-पत्नीके संगसे उसकी · तुलना करके वर्णन किया गया है। (५६) अरे ! चंद्रसे निकली चांदनी उसीमें विलीन होकर जैसे चंद्र ही हो · जाती है, जैसे सूर्य की किरण सूर्य में ही विलीन होकर सूर्य ही हो जाती है, अग्निसे उत्पन्न होने वाली कांति अग्निमें विलीन होकर अग्नि ही हो जाती है, दीपकसे प्रकट होने वाला प्रकाश दीपक में ही मिलकर दीपक हो बन जाता है, समुद्रके जलसे बननेवाली नदी समुद्रमें गिरकर समुद्र बन जाती है, उसी
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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