________________
वचन-साहित्य-परिचय
जैसा ऊपरके परिच्छेदके अंतमें लिखा है यह ग्रंथ हिंदी पाठकोंको अथवा हिंदीके माध्यमसे भारतकी सर्वसामान्य जनताको कन्नड़ वचन-साहित्यका मुंहदेखा परिचय करानेका नम्र प्रयत्न है, वस्तुतः मुंहदेखा परिचय ही है । कन्नड़ संत-साहित्यकी बात दूर रही, केवल वीरशैव संत-साहित्य सागर-सा गहरा और हिमालय-सा उन्नत है । उसका गहराईके साथ अध्ययन करके अन्य भाषाके पाठकोंको उनकी भाषा द्वारा संपूर्ण परिचय कराना एक महान दायित्वका काम है और साहसका भी। यदि हिंदीके ही कुछ विद्वान् कन्नड़ तथा तामिलके प्राचीन साहित्यके भिन्न-भिन्न अंग-उपांगोंका अध्ययन करके उसका हिन्दी में अनुवाद करते तो न केवल हिंदी भाषा संपन्न होती, अपितु भारतकी, सर्व सामान्य जनताका ज्ञान उन्नत होता। आशा है इस मुंहदेखे परिचयसे कन्नड़ वचन-साहित्यके साथ हिंदी के विद्वानोंका संबंध बढ़ेगा और उस साहित्यका अध्ययन करनेके लिए वे प्रवृत्त होंगे । यदि एक भी विद्वान इस ओर प्रवृत्त हो, तो अनुवादक अपनेको कृतार्थ समझेगा। .