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वचन - साहित्य- परिचय
कर आगे " उस आत्मैक्यका यह पार्थिव प्रकार है । एक नीरस नकल है !" ऐसा वर्णन किया है । परमार्थ मार्ग में जैसे धर्म, जाति, कुल, लिंग ग्रादिका कोई स्थान नहीं है वैसे ही सती-पति नामक लिंग भेद के लिए भी कोई स्थान नहीं है । क्योंकि वस्तुतः परमार्थका क्षेत्र ग्रन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश ही नहीं विज्ञानमय और श्रानंदमय कोशके प्रतिक्रमणके बाद प्रारंभ होता है। वहां संपूर्ण रूपसे कामादि अंग-भावोंके गल जानेकी ग्रावश्यकता है । परमार्थकी स्थिति संपूर्णतः प्रपार्थिव स्थिति है। वहां पार्थिवताका स्पर्श भी नहीं होता । किंतु अपार्थिव कल्पनाको समझाने के लिए पार्थिव उदाहरणोंको लेना आवश्यक हो जाता है । वैष्णवोंकी राधा - कृष्ण-भक्ति मधुर भावका एक सुंदर उदाहरण है । जयदेव कविके गीत-गोविंद काव्यमें इस भावका परमोच्च विकास पाया जाता है। किंतु वचनकारोंके आधार भूत ग्रंथ शिवागम हैं । इसलिए वचनकारोंने शिवागमोंमेंसे इसकी कल्पना ली है । शिवागमोंके एक सूक्ष्मागम में कहा है, "लिंग ही पति और अंग सुती, इस भावसे ऐक्य प्राप्त किया हुआ भक्त ही सच्चा वीरशैव है !" वचनकारोंने इसी रूपका विकास किया है। उन्होंने कहा है, "शरण ही सती और लिंग ही पति", इस भावको व्यक्त करनेवाले अनेक उदाहरण वचन साहित्य में मिलते हैं । उन वचनोंसे पतिताकी अनन्यता, निष्ठा, विरहिणीकी व्याकुलता, शरणागति, समर्पण, मिलनका धन्यभाव श्रादि छलके पड़ते हैं । जैसे वचनकारोंने, इस मधुर भावसे साधना की है वैसे ग्रन्थ संतोंने भी साधना की है । इसाई संतोंने उनमें से भी इसाई साध्वियों ने इस प्रकारकी साधना अधिक की है । कैथराईन ग्रॉफ सायना नामकी साध्वीने कहते हैं कि परमात्मासे हुए अपने विवाह के प्रतीक रूप एक अंगूठी पहन रखी थी। सैंट जान श्रॉफ दि क्रॉसने लिखा है, "प्रिया के मधुर स्पर्शसे, प्रेमाग्निकी एक चिनगारीसे ही मेरे अंतःकरण में और आग सी लग गयी !" किंतु प्राध्यात्मिक जगत में लैंगिक भावनाको उत्तेजन देना उचित नहीं है । इस पर अनेक आधुनिक पौर्वात्य और पश्चिमात्य दार्शनिक सहमत हैं । प्रो० विलियम जेम्स नाम के एक अमेरिकन दार्शनिकने तो "हमारा पारमार्थिक जीवन हमारे यकृत, पित्तकोश अथवा मूत्रकोश प्रादिसे जितना संवद्ध है उतना ही लिंग अथवा लिंगभावसे संबद्ध है !" - कहकर अत्यंत कटु सत्य समाज के सामने रखा है। सूफी संप्रदायके भक्त मधुर भाव और मदिराके उदाहरण बहुत देते हैं । उनके विचारसे मदिराका अर्थ भक्ति रस है, उसमें आनेवाले दैवी उन्मादका उन्मत्त भाव है । कई बार वह भगवानको 'प्राणेश्वरी !' कहकर पुकारते हैं । उनके वह उद्गार बड़े रम्य हैं । भावोत्पादक हैं । वचनकारों में प्रक्क महादेवीने इस भाव में साधना की है । उनका जीवन पिछले अध्यायमें आया है । मीरा बाईने