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वचन-साहित्य-परिचय
हैं वह पाकर धन्य-भाव अनुभव करने लगता है ।
साक्षात्कारका तात्विक रूप एक ही होता है । वह जीवन में प्रोत-प्रोत होता है । इस अनुभवके वाद साधक अपने में पूर्णताका अनुभव करने लगता है। किंतु वह अनुभव अवर्णनीय होता है । वह अंतःकरणसे अनुभव करनेका होता है । वह अनुभव सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंतरिन्द्रियको स्फूर्तिसे ही हो सकता है । गुरु-कृपासे यह संभव होता है। कोई भी शब्द इस अनुभवका वर्णन नहीं कर सकता। यह अनुभव पहले-पहले अंतरिन्द्रियोंको होता है। बादमें वाह्य इन्द्रियोंको भी होने लगता है। वह जीवन में व्याप्त हो जाता है। जैसे-जैसे यह अनुभव सर्वव्यापी होता जाता है साधक सतत और सर्वत्र उस दिव्य-तत्वका दर्शन करने लगता हैं। वही ज्योतिर्मय रूप देखता जाता हैं । उसी दिव्य-तत्वका गाया हुया दिव्य संगीत सुनता जाता है । कभी शरीरको स्पर्श न होनेवाले ब्रह्म-संस्पर्शके पुलकोत्सवसे धन्य-धन्य होता जाता है। कभी जिह्वाकी नोकको अनुभवमें न आने वाले अमृतान्नके दिव्य स्वादके मदमें मस्त होकर झूमने लगता है । कभी नाकसे अनुभव न किये गये आकाश-पुष्पकी सुगंधसे सुगंधित हो जाता है । साक्षात्कारी इस तरह अंतर-बाह्य पूर्ण हो जाता है । उसका रोम-रोम दिव्य आनंद अनुभव करने लगता हैं । उनका अनुभूत यह दिव्य आनंद उनके रोम-रोमसे टपकने लगता है। ऐसे मनुष्यके दर्शनसे सर्वसामान्य मनुष्य भी आनंदित हो जाता है। उसका जीवन सबके लिए समान हो जाता है। न वह किसीसे द्वेष करता न दूसरा उससे द्वेष कर सकता है। मानो वह सर्वबंधु हो जाता है। विश्वमित्र बन जाता है । इसमें संशय नहीं कि यह साक्षात्कार अदृश्य, अव्यक्त, सृष्टिका अवर्णनीय आनंद है। किंतु उसके भी कुछ बाहरी लक्षण हैं। सच्चा साक्षात्कार साधकके सब संशय छिन्न-भिन्न कर देता है । उसको निर्द्वन्द्व कर देता है। उसको निष्काम बना देता है। साधकमें पूर्णताका धन्य-भाव जगा देता है । मैंने जो कुछ पाया है वही अंतिम सत्य है, मैंने वह पा लिया है अब और कुछ पाना नहीं है, इस भावको जगा देता है । उसके जीवन में 'पावश्यकता है,' ऐसा कुछ नहीं रहता। जब तक यह वात नहीं होती तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि किसीको साक्षास्कार हुआ है । इन लक्षणोंके बिना यदि कोई साधक कहता है कि मुझे साक्षात्कार हुआ है तो यही कहा जाएगा कि यह साधककी कल्पना-तरंग है । हो सकता है कि यह उसके ज्ञानतंतुओंको क्षणिक वृत्ति हो । हो सकता है वह अातुर साधककी प्राशा-आकांक्षाओं का खेल हो। हो सकता है वह साधकका योग-स्वप्न हो। किंतु ब्रह्म-साक्षात्कार नहीं। साक्षात्कार कोई क्षणिक वृत्ति नहीं, अपितु जीवन
१. कन्नड़ संतोंका अपना शब्द । पुलकित उत्सव=पुलकोत्सव ।