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________________ वचन-साहित्यका सार-सर्वस्व. च्यानशक्तिका सहारा लेगा तो उसको ध्यानयोग कहेंगे। अथवा इसको पातंजलयोग कहेंगे । क्योंकि पातंजलिमुनि इसके प्रवर्तक हैं। इसके ग्राम अंग हैं। इसलिए इसको श्रप्टांग योग भी कहते हैं। किसीने अपनी साधनाके लिए भावनाशक्तिका सहारा लिया, उसको भावना योग अथवा भक्ति योग कहा जाता है । और बुद्धिशक्तिका सहारा लिया तो ज्ञान-योग । अपनी अलग-अलग प्रकारकी कार्यप्रणालीके कारण इन शक्तियोंको अलग-अलग नामसे जानते हैं। किंतु ये शक्तियां समन जीवनके विकासको दृष्टिसे स्वतंत्र नहीं हैं । यह सब परस्परावलंबी हैं । उसी प्रकार मोक्ष-साधनामें यह सब मार्ग भी परस्परावलंबी हैं । इसीलिए वचनकारोंने इन सवका समन्वय किया है। उनकी दृष्टिसे इनमेंसे किसीका स्वतंत्र पृथक् अस्तित्व नहीं है । वचनकारोंका मार्ग समर्पणजन्य शरण मार्ग है। वह परशिव की शरण गये थे इसलिए उन्हें शिवशरण कहते हैं । सर्वार्पण करके शरण गये हुए शरणके पास भला अपना क्या रहेगा ? उसकी सभी शक्तियां भगवदर्पण है । वह प्रत्येक बातके लिए परमात्मा पर ही निर्भर रहेगा। इसके अतिरिक्त उसके पास दूसरा कोई संवल है ही नहीं। शरण अपने बल पर उछल-कूद करने वाला बंदरका बच्चा नहीं होता। वह तो अपनी मांके सामने अांखें मून्दकर सिर नवाकर बैठा हुआ बिल्लीका बच्चा-सा है। जहां मां रखती है वहां रहेगा । जैसा रखती है वैसे रहेगा। मां को ही उस बच्चेकी चिता है। वही उसको विपत्तिके मुंहसे बचाती है । यह वचनकारोंकी साधनाकी विशेषता है। वचनकारोंके इस साधना-मार्गको जैसे शरण-मार्ग कहते हैं वैसे ही समन्वय-योग कह सकते हैं । अथवा जीवनकी संपूर्ण शक्तियोंका उपयोग होता है इसलिए जीवनयोग अथवा पूर्णयोग कह सकते हैं। इतना सब होने पर भी कई वचनकार कर्मयोगी हैं । कोई ध्यानमार्गी है। कोई ज्ञानयोगी तो कोई भक्त । इनमें किसीका कोई हठ नहीं। कोई आग्रह नहीं। सब सर्वसमर्पणको समान रूपसे महत्व देते हैं । सर्व प्रथम वे अपनी सब शक्तियोंको परशिवके चरणों में अर्पण करेंगे। एक बार शिवार्पण हुआ कि वे सब शक्तियां प्रसाद रूप बनीं। उनकी यह मान्यता है कि इस प्रकारके समर्पणसे उन सब शक्तियोंका शुद्धिकरण होगा, जिन शक्तियोंका उपयोग मुक्ति-प्राप्तिके लिए करना है। उनकी दृष्टिसे इस शुद्धिकरणके बिना कुछ भी होना संभव नहीं है। ज्ञानयोगीकी बुद्धि शुद्ध न हो, अर्थात् प्रात्माभिमुख न हो तो क्या होगा ? वह आत्म-विमुख होगी। इन्द्रियाधित मनके पीछे दौड़ेगी ? तव भला वह परमात्माकी खोज कैसे करेगी? यह तो इन्द्रियजन्य सुखके पीछे पड़ेगी। परमात्मा विमुख होगी। वही बात संकल्प शक्तिकी है। शिवार्पणसे संकल्प शुद्धि हुई तो सत् संकल्पसे सत्कार्य होगा। वेना संकल्प शुद्धिको साधक निष्काम कैसे होगा ? ध्यान योगमें भी विना चित्त
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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