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वचन साहित्य- परिचय
अंधकार तत्वका सम्पूर्ण दर्शन नहीं होने देती । कभी-कभी उस तत्वको कोई न कोई कोर अथवा कला दिखाकर जीवको भ्रममें डाल देती है । इसको वचनकारोंने विस्मरण कहा है। वचनकारोंने कहा है कि उस मायाने सारे विश्व पर अपना श्रावर डाल दिया है । इसलिए बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी विस्मृतिके जाल में फँसकर उसके प्रधीन हुए हैं । श्रहंकार इस मायाका महानतम साधन है | ग्रहंकारका श्रर्थ देह भान है । श्रात्माको विस्मृतिले देहका भान होता है ।" देह ही मैं हूँ, ऐसा भाव बनता है । इस ग्रहकार के बवंडरसे ज्ञानकी ज्योति डग-मगाती है और मनुष्य दुःखी होता है । ग्रहंकार के कारण कामनाओं का प्रारंभ होता है । ग्रामा- प्राकांक्षाएं बढ़ती हैं। वहींसे दुःखकी परंपरा प्रारंभ होती है। वित्तेपणा,. पुत्रेपणा और लोकेपणासे वह भर जाता है । इन सबके मूलमें माया है। मायाजन्य विस्मरण है । मैं परमात्माका ही अंश हूँ, इसके विस्मरण से देह भान पैदा होता है । इससे शरीर सुखोंकी अभिलाषा पैदा होती है । वह बढ़ती है । श्रीर पंचेन्द्रियोंको सुख साधनाका प्रारंभ होता है । यही दुःखका कारण है । क्योंकि सच्चा सुख कभी पराश्रित नहीं हो सकता । वह अंतःकरण में स्थित आत्मापर अवलंबित होता है । इसलिए अपनी वास्तविकता स्मरणसे, अर्थात् ज्ञानसे मनुष्य सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है। इस विविधतापूर्ण विश्व में प्रत्येक जीव अलगलगता दिखाई देता है । किंतु इन सबका निकटतम संबंध है । वह संबंध श्रदृश्य है । प्रत्येक जीवका जन्म, विकास, मरण श्रादि समग्र विश्वके ग्रखंड कार्य-क्रमका एक ग्रंग है । इस जीवका जीवन समग्र विश्व के जीवन प्रवाहकी एक बूंद सा है ।" यदि मनुष्य इसका रहस्य जान लेगा तो भला वह किस बात का अहंकार करेगा ? किसका अभिमान करेगा ? किसका बड़प्पन दिखायेगा ? इससे वह नम्र बनेगा । प्रहीन बड़प्पनके पीछे नहीं पड़ेगा । इन्द्रियों का क्रीतदास नहीं बनेगा । जन्म-जन्मांतर के कर्म- बंधन में नहीं फँसेगा । निष्काम भाव से कर्म करता जाएगा। ईश्वर दन भी शक्तियां लोक-सेवार्थं व्यय करेगा। प्रभुका दिया हुया सर्वस्व उसीके चरण समर्पण करके उसमें ऐक्य हो जाएगा । परमात्मा में समरत हो जाएगा ।. इनकी बननकारोंने 'लिक्य' 'निर्जक्य' 'समरसेक्य आदि कहा है। जब मनुष्य : सामूहिक से इस और ग्रागे बढ़ेगा भारतीय दार्शनिकोंका "सर्वे सुखिनः सन्तु सर्व वन्तु निरामयाः" वाला स्वप्न साकार होता जायेगा । वचनकार इस महास्वप्न साकार बनानेवाली सामूहिक साधनाके साधक है। जो कुछ पाया उसे सबको देनेके लिए उन्होंने यह सब कुछ किया जो वे कर सकते थे । कामजीवन इस ओर संकेत करता है । श्राध्यात्मिक जीवनमें यस्ता पाती थे । उनको मान्यता है कि इन विशाल विश्वमें जीवनका एक सय है। जबतक इस जीवको चैतन्यका स्मरण जान नहीं
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