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प्रस्तावना
भगवान् रमण महपि के शरीरान्त के थोड दिना वाद, मैन यह विचार व्यक्त किया था कि तिरुवन्नामलाई एक आध्यात्मिक केन्द्र के रूप में अवश्य हो रहेगा । महपि स्वयं उन लोगो की भत्मना किया चरत थे जा यह चिन्ता व्यक्त करते थे कि उनके देहावसान के साथ उनका माग-दान समाप्त हो जायेगा । महपि व्यग्यपूर्वक कहा करते थे, "आप लोग इस शरीर को बहुत अधिक महत्त्व देते हैं ।" और दुख प्रकट करने वाले लोगों से वे कहा करत थे, "आप सोचते हैं कि मैं इस संसार से जा रहा हूँ, परन्तु में जा वहाँ सकता हूँ? मै तो यही है ।" इसके अतिरिक्त वे जो कुछ कहते थे, उसमें उनका आन्तरिक विश्वास प्रकट होता था ।
मयि को दिवगत हुए आज पन्द्रह वय होते हैं। हम अपने अनुभव से उन्हीं बातों की पुनरावृत्ति कर सकते हैं। पहले उस दिव्य ज्योति के दानो लिए और उसके सानिध्य का लाभ उठान के लिए महन्स्रो व्यक्ति वा मलाई आया करते थे । इनमें से कुछ भक्त थे जिन्होने अपना जीवन और भाग्य महर्षि के हाथो मे समर्पित कर दिया था और उनके बताये भाग पर चलने का प्रयत्न कर रहे थे | अब भीड छंट गयी है, केवल भक्त जन रह गये हैं। इन भक्त जनो में बोर भी कई श्रद्धालु भक्त आकर सम्मिलित हो गये है, और सभी समान रूप से महर्षि की अनुकम्पा और उनके माग दर्शन के प्रभाव अनुभव करते हैं ।
आजकल शान्ति को बहुत अधिक चर्चा है । प्राय शान्ति का अथ युद्धनिवारण और सुरक्षा की स्थिर स्थिति से अधिक कुछ नही है । भगवान् की शान्ति इसमे वहुत भिन्न है, यह एक आन्दोलक शक्ति है जो हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व में विद्यमान है और यह अपार शान्ति की अवस्था है। यह हमारी कल्पना से नितान्त परे है। इसकी प्राप्ति से पूर्व यह मन-निर्मित समस्त बाघ को काट देती है और इसे शाश्वत सत्ता का पूर्वाभास हो जाता है । यही वह शान्ति है जिसे भक्तगण आज भी reणाचल पहाडी के प्रदेश मे अनुभव करते हैं ।