________________
अरुणाचल
५५
आवश्यक है क्योकि उनकी पूव कठोर तपस्या से किसी का यह विचार बन सकता है कि उनका रूप भयानक और घृणास्पद होगा। इसके विपरीत उनकी जीवन-पद्धति स्वाभाविक और सब प्रकार के वन्धनो मे मुक्त थी। नवागतुक उनके सान्निध्य में तत्काल ही अपने को सुखद स्थिति मे अनुभव करने लगता था। उनकी बातचीत मे हमेशा हास-परिहास का पुट रहता था। उनका वाल-सुलभ हास्म इतना प्रभावो था कि जो उनकी भाषा नही भी ममझते थे, वे भी इसका आनन्द लेते थे ।
श्रीभगवान् और उनका आश्रम अत्यन्त स्वच्छ थे । जव एक नियमित आश्रम की स्थापना हो गयी तब इसका कार्य कार्यालय की तरह समय-सारणी के अनुसार चलने लगा। घडियो का समय विलकुल ठीक रखा जाता था और दैनिक कायक्रम सवथा निर्धारित होता था । किसी वस्तु का अपव्यय नही किया जाता था। एक बार एक सेवक को श्रीभगवान ने इसलिए डांटा क्योकि वह पुस्तक पर चढाने के लिए नया कागज ले आया था । जव कि पहले कटे हुए कागज का भी प्रयोग किया जा सकता था। भोजन के सम्बन्ध में भी यही वात थी। जव श्रीभगवान् भोजन कर चुकते थे, उनकी पत्तल पर चावल का एक भी दाना जूठन के रूप मे नही दिखायी देता था । सब्जी के डण्ठल और पत्ते पशुओ के खाने के लिए रख दिये जाते थे, उन्हें फेंका नही जाता था।
श्रीभगवान स्वभावत अत्यन्त सरल और विनम्र थे। जिन बातो पर उन्हें क्रोघ माता था, उनमे से एक यह भी थी। खाना परोसने के थोडी-सी समय यदि उनके मामने कोई स्वादिष्ट वस्तु दूसरो की अपेक्षा अधिक मात्रा मे परोसी जाती तो वे क्रोधित हो उठने । महाकक्ष में प्रवेश करते समय वह लोगो का अपने सम्मान मे उठ खडे होना पसन्द नहीं करते थे और उनसे अपने स्थानो पर बैठे रहने का सकेत करते थे। एक बार वह दोपहर को धीरे-धीरे नीचे पहाडी पर स्थित आश्रम की ओर जा रहे थे। उनका कद लम्बा और रग स्वण सदृश था । वाल पहले ही सफेद हो चुके थे । वह अत्यन्त कृशकाय दिखायी देते ये । गठिये के कारण वे झुककर और लाठी का सहारा लेकर चल रह थे। उनके साथ छोटे कद का, श्याम वण का एक सेवक था। पीछे से उनका एक भक्त आ रहा था, इसलिए वह यह कहते हुए एक ओर हो गये, "तुम तरुण हो, और जल्दी चलते हो, पहले तुम जायो ।" यह एक छोटी-सी शिष्टाचार की वात थी परन्तु भक्त के प्रति गुरु का यह गौरव गरिमामय आचरण था।
ऐसी अनेक कथाएँ हैं। कहां तक वणन करें। इनमे से कुछ पर बाद मे उपयुक्त स्थान पर प्रकाश डाला जायगा। चूंकि अव सामान्य जीवन-पद्धति की ओर वापसी की चर्चा हो रही है, इसलिए यह निर्देश करना आवश्यक है कि उनकी जीयन-पदति कितनी सामान्य, कितनी मानवीय और कितनी उदात्त थी।