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प्रकाशकीय वक्तव्य गत वप अपनी दक्षिण भारत की यात्रा के म य मुझे श्री रमण महर्षि के आश्रम में जाने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यद्यपि श्री रमण महर्षि का पार्थिव शरीर अब इस मसार में नहीं है, तथापि उनका आयात्मिक प्रभाव आश्रम के वातावरण तथा आश्रमवासियों पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। ___ आश्रम मे मेरा सम्पक एक हालैण्ड निवासी युवक श्री माइक लोग, जो अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा के कारण आश्रम मे आये हुए थे, से हुआ। उन्होंने मुझे इगलैण्ड से प्रकाशित, श्री आसवोन लिखित महर्षि वा जीवन-चरित्र पढने को दिया। इस पुस्तक से मैं इतना अधिक प्रभावित हुमा कि मेरे मन म तुरन्त ही यह प्रवल इच्छा उत्पन्न हुई कि प्रस्तुत पुस्तक का हिन्दी मम्करण प्रकाशित किया जाय । मैं श्री आमबोन और उनकी धमपत्नी से जो आश्रम मे वो मे माधनारत हैं, मिला और अपने सकल्प की चर्चा की। श्री आमबोनं ने मुझे पुस्तक के हिन्दी अनुवाद के लिए प्रोत्साहित किया । अन्तत आश्रम के सभापति श्री टी० एन० वेंकटरमण ने इस ग्रन्थ के हिन्दी सस्करण के प्रकाशन की आजा दे दी, जिमके लिए मैं उनका अत्यन्त अनुग्रहीत हूँ । प्रस्तुत पुस्तक उनी पावन सकल्प का परिणाम है। ___ महर्षि की शिक्षाओं का सार है "मैं कौन हूँ इस तत्त्व को पहचानो, परमात्मा को जानने से पहले स्वय को जानो, भूत और भविष्य के जजाल मे न पडकर वतमान को मैवारो । सुख और अमृत हमारे चारो ओर बरम रहा है । आवश्यकता है अन्तराभिमुख होने की।
प्रस्तुत पुस्तक के अध्ययन से यदि कोई अन्धकारावच्छन्न हृदय आध्यात्मिक प्रकाश से आलोकित हो सका तो मैं अपने प्रयाम को सफल समझंगा।
राधेमोहन अग्रवाल