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तीसरा अध्याय यात्रा
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वेंकटरमण के जीवन मे इस परिवर्तन के कारण सघर्ष उठ खडा हुआ । वह स्कूल के काम की अब पहले से भी अधिक उपेक्षा करने लगा । हालाँकि यह उपेक्षा अब खेल के लिए न होकर प्राथना और चिन्तन के लिए होती थी । वेंकटरमण के चाचा और उसके बडे भाई उसकी कटु आलोचना करने लगे और उन्हे उसकी वृत्ति विलकुल अव्यावहारिक दिखायी दी । उनको दृष्टि मे वेंकटरमण एक मध्यवर्गीय परिवार का किशोर पुत्र था जिसे धन कमाने और दूसरो की सहायता करने मे अपनी सारी शक्ति लगा देनी चाहिए थी । जागरण के कोई दो महीने बाद २६ अगस्त को एक अभूतपूर्व घटना घटी । वेंकटरमण ने बेन के अग्रेजी व्याकरण का एक अभ्यास याद नही किया था । दण्डस्वरूप उसे तीन वार यह अभ्यास लिखने के लिए कहा गया । वह दोपहर का समय था और वह ऊपर के कमरे मे अपने वडे भाई के साथ बैठा था । उसने दो वार तो यह अभ्यास लिख लिया, परन्तु जब वह तीसरी वार यह अभ्यास लिखने लगा, तो उसे इस कार्य की व्यर्थता इतने प्रवल रूप से प्रतीत हुई कि उसने कागज एक ओर हटा दिये और पालथी मारकर समाधिस्थ हो गया ।
इस दृष्टि से विक्षुब्ध होकर नागास्वामी ने व्यग्य से कहा, "ऐसे आदमी को इन सब चीजो से क्या लेना देना है ?" इसका अथ स्पष्ट था जो व्यक्ति साधु की तरह जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसे पारिवारिक जीवन की सुख-सुविधाओ के उपभोग का कोई अधिकार नही है । वेंकटरमण के दिल को यह वात लग गयी और वह सत्य ( या न्याय जो कि व्यावहारिक सत्य है) को कठोरतापूर्वक स्वीकार करने की अपनी चारित्रिक विशेषता के कारण तत्क्षण सब कुछ परित्याग करके घर छोडने के लिए तैयार हो गया । उसका विचार तिरुवन्नामलाई और अरुणाचल की पवित्र पहाडी की ओर प्रयाण करने का था ।
वेंकटरमण यह अच्छी तरह जानता था कि उसे कौशल से काम लेना होगा, क्योकि हिन्दू परिवारो मे वडो का अनुशासन बहुत कडा होता है। अगर