________________
रमण महाप
" एक और परिवर्तन मुझमे यह हुआ कि मीनाक्षी के मन्दिर ' के प्रति मेरी धारणा बदल गयी । पहले में मन्दिर मे कभी-कभी मित्रो के साथ मूर्तियो का दशन करने और मस्तक पर पवित्र विभूति तथा सिन्दूर लगाने के लिए जाया करता था और बिना किसी आध्यात्मिक प्रभाव के मैं घर वापस आ जाया करता था । परन्तु जागरण के बाद में प्राय हर सायकाल वहाँ जाने लगा । में मन्दिर मे अकेला जाया करता और शिव या मीनाक्षी या नटराज और त्रेसठ सन्तो की मूर्तियों के सामने अविचल भाव से खडा हो जाता । मेरे हृदय - सागर मे भावना की तरंगें उठने लगती । जब आत्मा ने 'मैं शरीर हूँ' इस विचार का परित्याग कर दिया तो इसका शरीर पर से आधिपत्य जाता रहा । अव यह किसी नये आश्रय की तलाश करने लगी । मैं बार-बार मन्दिर जाने लगा और मेरी आत्मा द्रवित हो उठी। यह आत्मा के साथ भगवान् की लीला थी । मैं जगन्नियन्ता और सृष्टि के भाग्य विधाता, सवज्ञ और सर्वव्यापक ईश्वर के सम्मुख खडा होता और कभी-कभी उससे उसकी कृपा के लिए प्राथना करता कि मेरी भक्ति में वृद्धि हो और वह सठ सन्तो की भक्ति की तरह शाश्वत वने । प्राय मैं बिलकुल प्राथना नही करता था और अपने अन्तरतम की गहराइयों में विद्यमान अमृत प्रवाह को अनन्त सत्ता की ओर प्रवाहित होने देता । मेरी आँखो से अश्रुओ की अजस्र धारा प्रवाहित होकर मेरी आत्मा को आप्लावित कर देती । यह किसी विशेष आनन्द या पीडा की सूचक नही थी । में निराशावादी नही था, मुझे जीवन के सम्बन्ध मे कुछ भी ज्ञान नही था और मैं यह भी नही जानता था कि यह दुखो से भरा हुआ है । मैं पुनजन्म के बन्धन से मुक्त होने या मुक्ति की प्राप्ति या आवेशशून्य होने की किसी इच्छा मे प्रेरित नही हुआ था । मैंने पेरियापुराणम्, वाइविल और तायुमनावर या तेवरम के कुछ अशो के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ नही पढे थे । मेरी ईश्वर सम्वन्धी धारणा वही थी जो पुराणो मे पायी जाती है । मैंने ब्रह्म, ससार और इसी प्रकार के अन्य तत्त्वो के सम्वन्धो मे कभी नही सुना था । मुझे अभी तक यह ज्ञात नही था कि प्रत्येक वस्तु मे एक अवैयक्तिक यथार्थं सत्ता अनुस्यूत है और ईश्वर तथा मैं, दोनो इसके साथ एकरूप है । वाद मे तिरुवन्नामलाई मे जब मैंने ऋभु गीता और अन्य धार्मिक ग्रन्थ पढ़े, तव मुझे ज्ञात हुआ कि धार्मिकग्रन्थो मे उस वस्तु का विश्लेपण और नामकरण है जिसे मैंने विना विश्लेषण या नाम के स्फुरणात्मक रूप से अनुभव कर लिया था । धार्मिक1 मदुरा का विख्यात मन्दिर ।
१२