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सत्रहवां अध्याय महासमाधि
देहावसान से कुछ वर्ष पूर्व, सन १९४७ के बाद से श्रीभगवान् का स्वास्थ्य चिन्ता का विपय बन गया था। गठिया ने न केवल उनकी टांगो को निर्वल कर दिया था बल्कि उनकी पीठ और कधो पर भी इसका प्रभाव पड़ा था। वे बहुत दुवल दिखायी देते थे, परन्तु उन्हे इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं थी। ऐसा अनुभव किया गया कि उन्हे आश्रम के भोजन की अपेक्षा अधिक पौष्टिक भोजन की आवश्यकता है परन्तु वह कोई भी अतिरिक्त चीज लेने के लिए तैयार नहीं थे। ___ अभी वे सत्तर साल के भी नही हुए थे परन्तु इससे बहत अधिक बुढे दिखायी देते थे । वह चिन्ता जर्जरित नहीं थे, क्योकि चिन्ता का कोई चिह्न ही उनमे दिखायी नही देता था, उन्होने कभी चिन्ता की ही नहीं थी। वे अत्यन्त वृद्ध और दुवल हो गये थे। इसका क्या कारण है कि जो व्यक्ति इतना स्वस्थ और स्फतिमान था, जिसने कभी रोग, शोक और चिन्ता की परवाह ही न की थी। वह अपनी आयु से भी अधिक वृद्ध दिखायी देता था । इसका कारण यह है कि उन्होंने ससार के पापो को स्वयं अपने ऊपर ले लिया था-उन्होने अपने भक्तो के कम-वन्धन को शिथिल कर दिया था-शिव भगवान् ससार को विनाश से इसीलिए बचा सके क्योकि उन्होने स्वय विपपान किया था। श्री शकराचाय ने लिखा था, "हे शम्भु जीवनदाता तू अपने भक्तो के सासारिक जीवन के भार को भी वहन किये हुए है।"
ऐसे अनेक भौतिक रूप से अस्पष्ट लक्षण थे, जो यह प्रदर्शित करते थे कि भगवान् ससार का भार वहन किये हुए हैं । एक भक्त ने, जिसका नाम कृष्णमूति है, महिला भक्त जानकी अम्माल द्वारा प्रसारित तमिल पत्रिका मे लिखा है कि एक दिन भगवान को तजनी अंगुली मे भीषण पीडा हुई और वे सभाभवन में जाकर बैठ गये । कृष्णमूति ने इसको चर्चा किसी से नही की, परन्तु उसे यह देख कर बहुत आश्चर्य हुआ कि श्रीभगवान् अपनी तजनी को अपने हाय पर रगड़ रहे हैं और उनकी पीडा दूर हो गयी है। अन्य बहुत से लोगो को भी इस प्रकार पीहा से मुक्ति मिली है।