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रमण महाप
है और यह आवेशो की जड पर कुठाराघात करता है । एक व्यक्ति का अपमान किया गया है और वह आक्रोश अनुभव करता है - किसका अपमान किया गया और कौन आक्रोश अनुभव करता है ? कौन प्रफुल्लित या निराश है, क्रुद्ध या हर्षोल्लसित है ? एक व्यक्ति दिवा स्वप्नो की दुनिया में विचरने लगता है या विजयो के स्वप्न देखता है और उसी प्रकार अपने अह का प्रसार करता जाता है, जिस प्रकार चिन्तन इसका सकोचन । इस अवसर पर विचार की तलवार को बाहर निकालने और इस बन्धन को काटने के लिए शक्ति और स्फूर्ति की आवश्यकता होती है ।
जीवन की गतिविधियो मे भी श्रीभगवान् ने विचार के साथ-साथ दे इच्छा के प्रति समर्पण का आदेश दिया । उन्होंने उस व्यक्ति की, जो यह सोचता है कि वह अपना भार और दायित्व स्वयं वहन किये हुए है, तुलना गाडी मे यात्रा करने वाले उस यात्री से की, जो गाडी मे अपना सामान स्वय उठाने का आग्रह करता है । हालांकि गाडी इसे साथ-साथ उठाये जा रही है और बुद्धिमान यात्री अपना सामान पट्टे पर रख देता है और आराम से बैठ जाता है । सभी आदेश और उदाहरण जो श्रीभगवान् देते थे वे स्वार्थवृत्ति के ह्रास तथा 'मैं कर्ता हैं, इस भ्रम के निवारण पर केन्द्रित थे ।
एक वार प्रसिद्ध काग्रेसी कार्यकर्ता जमनालाल बजाज आश्रम मे आये और श्रीभगवान् से पूछने लगे "क्या स्वराज के लिए इच्छा उचित है ?"
श्रीभगवान् ने उत्तर दिया, "हाँ, लक्ष्य के लिए निरन्तर काय व्यक्ति के दृष्टिकोण को व्यापक बना देता है, जिससे वह धीरे-धीरे अपने देश मे लीन हो जाता है । इस प्रकार के व्यक्ति का लय वाछनीय है और यह कर्म निष्काम कर्म है ।"
जमनालालजी को बडी प्रसन्नता हुई कि उन्होने श्रीभगवान् से अपने राजनीतिक ध्येयो की स्वीकृति प्राप्त कर ली है। उन्होने श्रीभगवान् से निश्चित आश्वासन प्राप्त करने की इच्छा से यह प्रश्न किया जो कि तर्कसगत प्रतीत होता था, "अगर निरन्तर सघर्ष और महान् वलिदान के उपरान्त स्वराज मिलता है तो क्या इससे व्यक्ति का प्रफुल्लित होना न्यायोचित नही है
?"
परन्तु उन्हें निराश होना पडा । "नही, सघर्ष के दौरान, उसे उच्च सत्ता के प्रति समर्पण कर देना चाहिए, उसकी शक्ति को सदा अपने सम्मुख रखना चाहिए और कभी नही भुलाना चाहिए । तब वह कैसे फूला समा सकता है ? उसे अपने कार्य के परिणामो की भी चिन्ता नही करनी चाहिए । तभी यह निष्काम कम बनता है ।"
कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति के काय का परिणाम भगवान् पर निर्भर करता है, उसे तो केवल शुद्ध और नि स्वाथ भाव से इसे सम्पन्न करना