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जागरण
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करना शुरू किया । यह शरीर नही
गया और मैंने एक
कर दिया कि अब क्या किया जाय। किसी डाक्टर, या अपने वडे बुजुर्गों और मियो से परामर्श करने का विचार भी मेरे मन मे नही आया । मैंने अनुभव किया कि मुझे तत्काल समस्या का समाधान स्वय करना है । " मृत्यु के भय के आघात के कारण में अन्तर्मुख हुआ और मेरे मन में अनायास ही ये विचार आने लगे- 'अव मृत्यु आ गयी है, इसका क्या अभिप्राय है ? मृत्यु किसकी होनी है रहेगा ।' और मैंने एकाएक मृत्यु का अभिनय मैं अपने अगो को फैलाकर और कहा करके लेट शव का अनुकरण किया ताकि में इस खोज की तह तक पहुँच सकूं । मैंने श्वास रोक लिया और अपने ओठ कसकर बन्द कर लिये ताकि न तो 'मैं' और न कोई अन्य शब्द में कह सकूं। फिर मैंने अपने-आप से कहना शुरू किया, 'हाँ तो मेरा शरीर मृत है। लोग इसे उठाकर श्मशान घाट ले जाएँगे और जला देंगे, तब यह राख हो जाएगा । परन्तु क्या इस शरीर की मृत्यु से मेरी मृत्यु हो जाएगी शरीर हूँ? मेरा शरीर मौन और जब है परन्तु मैं अपने व्यक्तित्व की क्या मैं सम्पूर्ण शक्ति को अनुभव कर रहा हूँ और इसके अतिरिक्त अपने अन्दर उठने वाली 'मैं' की आवाज को भी अनुभव कर रहा हूँ । इसलिए मैं शरीर से परे आत्मा हूँ । शरीर को मृत्यु हो जाती है, परन्तु आत्मा को मृत्यु स्पश तक भी नहीं कर सकती। इसका अभिप्राय है, 'में अमर आत्मा हूँ ।' यह सव शुष्क विचार - प्रक्रिया नही थी । जीवित सत्य की भाँति अत्यन्त स्पष्टतापूर्वक ये विचार मेरे मन मे बिजली की तरह काँध गये । विना किसी विचार - प्रक्रिया के मुझे सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन हो गया । 'अह' ही वास्तविक सत्ता थी और मेरे शरीर से सम्बद्ध सभी चेतन गतिविधियाँ इसी 'अह' पर केन्द्रित थीं। इसी क्षण से किसी शक्तिशाली प्रेरणा के कारण 'अह' ने अपने पर ध्यान केन्द्रित करना आरम्भ किया । मृत्यु का भय सदा के लिए जा चुका था। इससे आगे आत्म- केन्द्रित ध्यान अविच्छिन्न रूप से जारी रहा। संगीत के विभिन्न स्वरो की भाँति अन्य विचार आते और चले जाते परन्तु 'अह' उस आधारभूत श्रुतिस्वर के समान जारी रहा, जो सभी अन्य स्वरों के मूल मे सम्मिश्रित है ।" मेरा शरीर वार्तालाप, अध्ययन या किसी अन्य काय मे भले ही लीन हो, परन्तु
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यह एक स्वर-सगीत मे सर्वत्र गुजरित होता है । जिस प्रकार माला के सभी मनकों में सूत्र पिरोया होता है, उसी प्रकार सत्ता के सभी रूपों में 'मम' तत्त्व अनुस्यूत है ।