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रमण महपि
भक्त उस अवस्था मे यह शरीर के किसी एक भाग मे कैसे स्थानीकृत किया जा सकता है ? हृदय के लिए एक स्थान निश्चित करने का अर्थ यह होगा कि आप उस पर भौतिक सीमाएं आरोपित कर दें जो समय और स्थान से परे है। ___भगवान् यह सत्य है, परन्तु जो व्यक्ति हृदय की स्थिति के सम्बन्ध मे प्रश्न करता है वह अपने को शरीर के साथ या शरीर मे अस्तित्वमात्र मानता है। चूंकि शुद्ध चैतन्य के रूप मे हृदय के अशरीरी अनुभव के दौरान, सन्त को अपने शरीर का तनिक भी ज्ञान नहीं होता, वह उस निरपेक्ष अनुभव को, अपने शरीर के ज्ञान के दौरान प्राप्त एक प्रकार की हृदयानुभूति स्मृति द्वारा भौतिक शरीर की सीमाओ के अन्दर स्थानीकृत कर लेता है। __ भक्त मुझ जैसे व्यक्तियो के लिए जिन्हे न तो हृदय का प्रत्यक्ष अनुभव है और न ही परिणामी स्मृति है, इस विपय को हृदयगम करना कुछ कठिन प्रतीत होता है । स्वय हृदय की स्थिति के सम्बन्ध मे शायद हम किसी प्रकार के अनुमान पर निभर करते हैं।
भगवान् अगर हृदय की स्थिति का निर्धारण अनुमान पर आधारित होता तो अज्ञानी के लिए भी यह विपय विचारणीय न होता। आपको अनुमान पर नही बल्कि निर्धान्त स्फुरणा पर निभर करना पडता है ।
भक्त यह स्फुरणा किसे होती है ? भगवान् प्रत्येक व्यक्ति को। भक्त क्या भगवान् मुझे हृदय का स्फुरणात्मक ज्ञान प्रदान करेंगे ?
भगवान् नही, हृदय का नहीं बल्कि आपके स्वरूप के सम्बन्ध में आपके हृदय की स्थिति का ।
भक्त क्या भगवान् का यह कहना है कि मैं स्फुरणात्मक रूप से भौतिक शरीर मे हृदय की स्थिति को जानता हूँ?
भगवान क्यो नही ?
भक्त (अपनी ओर सकेत करते हुए) क्या श्रीभगवान् वैयक्तिक रूप से मेरी ओर सकेत कर रह हैं ?
भगवान हो । यही स्फुरणा है । अभी आपने मकेत मे कैसे अपनी ओर निर्देश किया ? क्या आपने अपनी अगली अपनी छाती की ओर नही की ? यही ठीक हृदय-केन्द्र का स्थान है। ___ भवत तो क्या हृदय-केन्द्र के प्रत्यक्ष ज्ञान की अनुपस्थिति में मुझे इम म्फुरणा पर निभर रहना पडेगा ?
भगवान तो इसम दोप क्या है ? जव एव म्वृत जाने वाला लडका यह कहता है, "मैंन ही यह मवाल ठीक-ठीय निकाला है," या जब वह आपमे