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बारहवां अध्याय श्रीरमरणाश्रम
जब भक्तगण दिसम्बर १९२२ मे पहाडी की तलहटी में माता के स्मारक की ओर श्रीभगवान् के साथ गये, उस समय आश्रम के नाम पर फूम की एक झोपडी थी । आगामी वर्षों मे भक्तो की संख्या बढ़ती गयी, दान आने लगा और आश्रम के भवनों का निर्माण हुमा- समा-कक्ष जहाँ श्रीभगवान् वैठा करते थे, कार्यालय और पुस्तको की दूकान, खाने का कमरा और रसोई, गोशाला, डाकघर, सिस्पेंसरी, पुरुष-आगतुको के लिए अतिथि-गृह (वस्तुत यह एक कमग नही बल्कि उन लोगो के लिए जो आश्रम मे कुछ दिन ठहरना चाहते थे, एक विशाल कक्ष था), लम्बी अवधि तक ठहरने वाले अतिथियो के लिए दो छोटे वगले- ये सब एक मजिले भवन ये और इन पर बाहर सफेदी की गयी थी। ___आश्रम के पश्चिम मे, उसके निकट ही एक विशाल चौकोर तालाब है, जिसमे चारो दिशामओ से पत्थर की सीढ़ियाँ पानी तक पहुंचती हैं। आश्रम के दक्षिण में वस की सडक तिरुवन्नामलाई से वगलौर तक पूर्व और पश्चिम में जाती है। यह सडक आगे पश्चिम में दो शाखाओ में बंट जाती है और पहाडी के चारो ओर जाती है । सडक पर उत्तर की ओर मुंह करके खडा होने पर, पुलिया के पार, एक काले लफडी के पट्ट पर स्वर्णाक्षरो में 'श्रीरमणाश्रम' लिखा है । आश्रम का कोई द्वार नहीं है, यह बिलकुल खुला है । नारियल के पते आश्रम के भवनों को छिपाये हुए हैं और उनसे परे भव्य पहाडी है।
केवल आश्रम के भवनो का ही निर्माण नहीं किया गया था। सडक के पार मोरवी के राजा ने आगतुक राजाओ के लिए एक अतिथि गृह का निर्माण कराया था। गृहस्थी भक्तो द्वारा कुटियो और वगलों के निर्माण से एक वस्ती वहाँ वस गयी । आश्रम के ठीक पश्विम मे, पेलाकोह में कन्दराओ या कुटियों में रहने वाले साघुमो की एक वस्ती थी । इन कुटियो का निर्माण म्वय साधुओ ने किया था । इन साघुओ में से अनेक युवक थे, कई तो बडे धनी परिवारो के थे। उन्होंने सम्पत्ति तथा परिवार का त्याग कर वही तलाश में अपना जीवन अर्पित करने के लिए साधु जीवन का वरण किया था।
आश्रम में आने वाले या वहाँ वस जाने वाले सभी व्यक्ति हिन्दू नहीं