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ग्यारहवां अध्याय
पश
हिन्दुओ का ऐमा विश्वास है (जैसा कि शकराचाय ने भगवद्गीता सम्बन्धी अपनी टीका के पांचवें अध्याय मे पृष्ठ ४०-४४ पर विस्तार से व्याख्या की है) कि मृत्यु के बाद जिस जीव ने आत्मा के साथ एकरूपता अनुभव करते हुए पृथक व्यक्तित्व की भ्रान्ति से छुटकारा नहीं पाया, उसे सासारिक जीवन मे मचित अपने शुभ या अणुभ कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक की प्राप्ति होती है और इस कमफल-अवधि के पूरा होने के बाद, वह अपने कर्मों के अनुरूप, प्रारब्ध का फल भोगने के लिए पृथ्वी पर उच्च या नीच कुल मे जन्म लेता है। पुन पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद वह फिर नये कर्मों का संग्रह करता है और यह उसके सचित कर्मों का अश बन जाता है।
प्राय ऐसा विश्वास किया जाता है कि मानव प्रगति मम्भव है और कर्मों को फेवल मानव जीवन मे हो नि शेप किया जा सकता है। श्रीभगवान् ने मकेत किया है कि पशुओ के लिए भी अपने कर्मों को निशेप करना सम्भव है। इमी अध्याय मे उद्धृत एक वार्तालाप मे उन्होंने कहा, "हम नहीं जानते कि इन शरीरो मे कौन-मी आत्माएं निवास कर रही हैं और अपने असमाप्त कम का कौन-सा भाग पूरा करने के लिए उन्होंने इनका आश्रय लिया है।"
कराचार्य का भी मत था कि पणु मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक पुराण में भी कथा आती है कि ऋपि जादभरत को मरते समय अपन पालतू हरिण का सयाल आ गया और इस अन्तिम अवशिष्ट आसक्ति से मुक्ति पाने के लिए उह पुन हरिण का जन्म धारण करना पड़ा। __ श्रीभगवान अपने सानिध्य मे आने वाले पशो के साथ भी मनुष्यो जैसा व्यवहार करते थे और पशु भी मनुष्यो की अपेक्षा उनके प्रति कम आकर्षित नहीं थे। गुरुमूतम मे पक्षी और गिलहरियां उनके इद-गिर्द अपने घोसले वनाया करते थे। उन दिनो भक्तो का ऐसा विचार था कि वह ससार के प्रति अनासक्ति के कारण इसकी ओर से विलकुल पराह मुख थे, परन्तु तथ्य तो यह है कि उनकी दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म थी और वह एक गिलहरी परिवार की घर्चा किया पग्न थे, जिमने कुछ पक्षियों द्वारा परित्यक्त घोसले पर अधिकार कर लिया था।