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जल्दी मत करो, धीरे- धीरे आगे बढ़ो, धीरे- धीरे विकसित होओ, ताकि अगला चरण उठाने के पहले तुम तैयार हो सको । जब तुम ध्यान में विकसित हो रहे होते हो, तब बीच-बीच में थोड़े अंतरालों को आने देना। क्योंकि उन अंतराल के क्षणों में जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है, उसे आत्मसात हो जाने दो, उसे तुम्हारी मांस-मज्जा बन जाने दो, तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाने दो और फिर आगे बढ़ जाना जल्दी करने की दौड़ने की जरा भी जरूरत नहीं है क्योंकि जल्दी करने से दौड़ने से उस जगह पहुंच सकते हो जिसके लिए तुम तैयार नहीं हो। और अगर तैयारी नहीं है, तो वह तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकती है।
लोभी मन सभी कुछ अभी और यहीं प्राप्त कर लेना चाहता है। मेरे पास लोग आकर कहते हैं, 'आप हमें ऐसा कुछ क्यों नहीं दे देते, जिससे हम अभी संबोधि को उपलब्ध हो जाए?' लेकिन ये वही लोग होते हैं, जो तैयार नहीं हैं। अगर वे तैयार होते तो उनके पास धैर्य होता। अगर वे तैयार होते तो वे कहते, संबोधि कभी भी घटित हो हमें कोई जल्दी नहीं है, हम प्रतीक्षा करेंगे।'
ये लोग सच्चे नहीं हैं; ये लोभी लोग हैं। सचाई तो यह है कि वे स्वयं भी नहीं जानते हैं कि वे क्या माग रहे हैं। वे आमंत्रण तो विराट को दे रहे हैं, लेकिन अगर विराट को झेलने की तैयारी नहीं है तो वे छिन्न-भिन्न हो जाएंगे, वे उसे अपने में समा न सकेंगे।
पतंजलि कहते हैं, संयम को चरण-दर-चरण संयोजित करना होता है।"
और उन्होंने इन आठ अवस्थाओं की व्याख्या की है।
'ये तीन चरण वे तीन अवस्थाएं जिनके बारे में हमने पहले बात की थी।
'धारणा, ध्यान और समाधि - ये तीनों चरण प्रारंभिक पांच चरणों की अपेक्षा आंतरिक होते हैं।'
हम उन पांचों अवस्थाओं के बारे में बात कर चुके हैं। ये तीनों अपने से पहले वाली पांचों अवस्थाओं तुलना में आंतरिक हैं।
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'लेकिन निर्बीज समाधि की तुलना में ये तीनों बाह्य ही हैं।'
अगर इनकी तुलना यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार से की जाए, तब तो ये आंतरिक हैं। लेकिन बुद्ध - पतंजलि के परम अनुभव के साथ इनकी तुलना की जाए, तो फिर ये भी बाह्य अवस्थाएं ही हैं। ये अवस्थाएं ठीक मध्य में हैं। पहले शरीर का अतिक्रमण, वे बाह्य चरण हैं, फिर मन का अतिक्रमण, ये आंतरिक चरण हैं, लेकिन जब कोई अपने शुद्ध अस्तित्व को उपलब्ध हो जाता है, तो जो कुछ अभी तक आंतरिक मालूम होता था, वह भी अब बाहर का ही मालूम होने लगेगा। वह भी पूरी तरह से आंतरिक नहीं होता है।