________________
ध्यान रहे, साक्षी- भाव में अहंकार -बोध नहीं होता है। साक्षी- भाव में तो अहंकार को तो गिराना पड़ता है। और इसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। यह तो विश्रांति की अवस्था में लेट-गो की अवस्था में सहज –स्फूर्त घटित होना चाहिए।
मैं तुमसे एक कथा कहना चाहूंगा
एक पादरी अपने दिल का बोझ एक रब्बी से यह कहते हुए मिटा रहा था, 'ओह रब्बी परिस्थितियां बड़ी खराब चल रही हैं। डाक्टर मुझसे कहता है कि मैं बहुत बीमार हूं और मेरा एक बड़ा आपरेशन करना होगा।'
रब्बी बोला, 'इससे भी बरा हो सकता था।'
पादरी बिना रुके कहने लगा, 'मेरा धर्म संघ मुझे एक दूसरी धर्म सेवा के लिए भेज रहा है क्योंकि मेरे उपदेश बहुत बेकार हैं और घरों से मेरी कोई मांग नहीं।'
रब्बी ने कहा, 'इससे भी ज्यादा बुरा हो सकता था।'
'मेरे घर की देखभाल करने वाली ने अपना नोटिस दे दिया है, मेरे आर्गन बजाने वाले ने त्यागपत्र दे दिया है और धर्म वेदी की सेवा करने के लिए कोई लड़का नहीं मिलता,' पादरी जो रोने -रोने को हो रहा था अपनी कहता ही चला गया।
रब्बी ने कहा, 'इससे भी ज्यादा ब्रा हो सकता था।'
'पेरिस का खजांची पूरी की पूरी जमा –पूंजी लेकर कहीं चंपत हो गया है और बिशप निरीक्षण पर आने वाले हैं, मेरी के बच्चों में एक गर्भवती है, छत से पानी टपकता है और मेरी की कार चोरी चली गयी है,' पादरी कराहते हुए स्वरों में बोला।
रब्बी ने कहा, 'इससे भी ज्यादा बुरा हो सकता था।'
पादरी, जो अंततः रब्बी के करुणाहीन व्यवहार से दुखी हो गया था, बोला,' आखिर इससे भी बुरा क्या हो सकता है।'
रब्बी ने कहा, 'यह सब मेरे साथ भी हो सकता था।।'
अगर तुम अहंकार के ढंग से ही सोचते रहोगे तो तुम्हारा साक्षीभाव भी एक रोग हो जाएगा तब तुम्हारा ध्यान एक रोग हो जाएगा, तब तुम्हारा धर्म एक रोग हो जाएगा। अहंकार के साथ तो हर चीज डिस -ईस, रोग ही बन जाएगी। अहंकार तुम्हारे अस्तित्व की सबसे पीड़ादायी चीज है। वह उस चुभे हए कांटे की तरह है; जो पीड़ा दिए ही चला जाता है। अहंकार एक घाव है।