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स्त्री बच्चे को अपनी टोकरी में रखकर घर आ जाती है। स्त्री खेत में काम कर रही है और बच्चे का जन्म हो जाता है, बच्चे को वृक्ष के नीचे लिटाकर वह अपना काम जारी रखती है, जब काम पूरा हो जाता है तो सांझ घर जाते समय वह बच्चे को घर ले जाती है। कहीं कोई दर्द नहीं, कोई पीड़ा नहीं। क्या होता है? यह भी एक विश्वास है,यह भी एक संस्कार है।
और अब पश्चिम में लाखों स्त्रिया बिना किसी पीड़ा के बच्चों को जन्म देने के लिए तैयार हो रही हैं। बिना किसी पीड़ा के बच्चे को जन्म देना, बस विश्वास के ढांचे को बदलना है। स्त्रियों का यह सम्मोहन तोड़ देना है कि यह तो एक धारणा मात्र है -बच्चे को जन्म देने में सच में कोई पीड़ा नही होती है; यह केवल एक विचार मात्र ही है। और जब कोई विचार पास में होता है तो तुम वैसे ही बनते चले जाते हो। एक बार तुम्हारे पास कोई विचार होता है, तो फिर वैसे ही घटित होने लगता है - लेकिन वह तुम्हारा अपना प्रक्षेपण है।
पतंजलि कहते हैं कि सभी अनुभव भ्रांति हैं, भ्रम हैं -दृष्टि का भ्रम हैं। जब दृष्य के साथ हमारा इतना तादात्म्य स्थापित हो जाता है कि द्रष्टा यह अनुभव करने लगता है जैसे कि वह स्वयं दृष्य है। हमें भूख अनुभव होती है, लेकिन हम भूख नहीं होते –शरीर भूखा होता है। हमें पीड़ा अनुभव होती है, लेकिन हम पीड़ा नहीं हैं -शरीर में पीडन होती है, हम तो केवल पीड़ा के प्रति सचेत होते हैं।
अगली बार जब कभी शरीर में कुछ हो, और शरीर में कुछ न कुछ होता ही रहता है –तो उसे देखना। बस, इस बात का स्मरण रखने का प्रयास करना कि मैं साक्षी हूं' और फिर देखना चीजें कितनी बदल जाती हैं। एक बार यह अनुभव हो जाए कि मैं साक्षी हूं, तो बहुत सी चीजें अपने से ही गिर जाती हैं, अपने से मिटने लगती हैं।
और फिर एक दिन ऐसा भी आता है जब सभी अनुभव गिर जाते हैं और तुम संबोधि को उपलब्ध हो जाते हो। तब तुम उस अनुभव के भी पार होते हो तुम शरीर नहीं रहते, तुम मन नहीं रहते, तुम दोनों का अतिक्रमण कर जाते हो। अचानक तुम बादल की भांति तैरने लगते हो, सब से ऊपर, सब के पार। यह अनुभवातीत अवस्था ही कैवल्य की अवस्था होती है।
अब इससे संबंधित एक बात और। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि आध्यात्मिकता भी एक तरह का अनुभव है। ऐसे लोग इस बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं। कुछ ऐसे लोग हैं जो मेरे पास आते हैं और कहते हैं, हम आध्यात्मिक अनुभव पाना चाहते हैं।'
वे नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं। जब वे ऐसा कहते हैं, तो वे उसी अनुभव की बात कर रहे होते हैं जो इस जगत के अनुभव होते हैं। उनमें आध्यात्मिक जैसी कोई बात नहीं होती है -वह हो ही नहीं सकती है। किसी अनुभव को' आध्यात्मिक' कहना ही उसे असत्य ठहरा देना है। अध्यात्म तो केवल विशुद्ध जागरूकता का, पुरुष का बोध है।