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यही तो मैं तुम्हारे प्रश्नों के साथ कर रहा हूं। जो उत्तर मैं दे रहा हूं वे उत्तर महत्वपूर्ण नहीं हैं - इसे समझने की कोशिश करो – मैं तो तुम्हारे प्रश्नों को ही मिटा डाल रहा हूं। मेरे उत्तर कोई उत्तर नहीं हैं, बल्कि तुम्हारे प्रश्नों को मिटा डालने के आयोजन हैं।
बहुत से ऐसे लोग हैं जो तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देते हैं, और वे तुम्हें कुछ सुनिश्चित धारणाओं, सिद्धांतों, मताग्रहों और धर्म सिद्धांतों से भर देते हैं मैं उस ढंग से तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे रहा हूं। अगर तुम ध्यान से देख सको, और अगर तुम जागरूक रह सको, तो तुम समझ जाओगे मेरा पूरा प्रयास यहां पर तुम्हारे प्रश्नों को मिटा देने का है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें उत्तर मिल जाता है, बल्कि तुम्हारा प्रश्न ही मिट जाता है।
अगर किसी दिन तुम प्रश्न - शून्य या विचार - शून्य हो जाते हो, तो वही तुम्हारे लिए आत्मबोध हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि तुम्हें कोई उत्तर मिल जाएगा तुम्हारे पास प्रश्न ही न बचेंगे, बस इतना ही होगा। तुम इसी को उत्तर कह सकते हो जबकि कोई प्रश्न ही नहीं बच रहता है।
संबुद्ध वह नहीं है जिसके पास सभी चीजों के उत्तर होते हैं; संबुद्ध वह है जिसके पास प्रश्न ही नहीं हैं। जिसका प्रश्न करना मिट चुका है जिसके लिए प्रश्न करने की बात ही व्यर्थ, अप्रासंगिक हो चुकी है। वह तो बस बिना किसी प्रश्न के मौजूद होता है और जब मैं कहता हूं कि वह अ-मन होता है, तो मेरा यही अभिप्राय है। मन तो हमेशा प्रश्न करता रहता है, या इसे ऐसा कह लो मन प्रश्न है। जैसे पत्ते वृक्षों में उगते चले जाते हैं, ऐसे ही मन से प्रश्न उठते ही चले जाते है। पुराने पत्ते गिरते रहते हैं, नए पत्ते उगते रहते हैं, पुराने प्रश्न मिटते हैं, नए प्रश्न आते चले जाते हैं। मैं इस मन के पूरे के पूरे वृक्ष को ही जड़ से उखाड़ देना चाहता हूं।
अगर मैं तुम्हारे किसी प्रश्न का उत्तर दे भी देता हूं तो उस उत्तर से ही तुम्हारे मन में और न जाने कितने प्रश्न उठ खड़े होंगे। तुम्हारा मन उस उत्तर को भी बहुत से प्रश्नों में बदल लेगा।
मैं तो बिलकुल ही असंगत हूं - मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं – एक कवि हो सकता हूं एक शराबी हो सकता हूं। तुम मुझे प्रेम कर सकते हो, लेकिन मेरा अनुसरण नहीं। तुम मुझ पर श्रद्धा कर सकते हो, लेकिन मेरा अनुसरण नहीं तुम्हारे प्रेम और तुम्हारी श्रद्धा से ही तुममें कुछ अदभुत और मूल्यवान जुड़ जाएगा। इस प्रेम और श्रद्धा का जो कुछ मैं कहता हूं उससे कुछ लेना-देना नहीं है, इसका संबंध तो जो कुछ मैं हूं उससे है। यहां जो संप्रेषण घटित हो रहा है, वह शास्त्रों के पार का संप्रेषण है।
तो मुझे कभी भी अपने जीवन में किसी प्रकार की दुविधा या असमंजस का सामना नहीं करना पड़ा। यह असंभव है- तुम किसी पागल आदमी को कभी दुविधा में नहीं डाल सकते हो।
दूसरा प्रश्न :