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वस्तु की तरह किया जा रहा है, उसे वस्तुओं की कैटेगरी में ले आया गया है उसे लगता है जैसे उसके पास तो कोई आत्मा है नहीं, वह तो बस एक भोग-विलास का साधन मात्र है, इसीलिए वह क्रोधित रहती है और स्त्री भी पुरुष को वस्तु की कैटेगरी में ले आती है। वह पति को अपने वश में रखने की कोशिश करती है, और उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाने की कोशिश करती है। और बस यह खेल चलता चला जाता है।
यह जो पति - पत्नी के बीच का संबंध है, इसमें प्रेम कम कलह अधिक होती है- एक सतत कलह और संघर्ष चलता रहता है। पति-पत्नी के बीच प्रेम की अपेक्षा लड़ाई-झगडा अधिक होता है। प्रेम की अपेक्षा घृणा अधिक होती है।
जब व्यक्ति अपने भीतर की स्त्री और भीतर के पुरुष के साथ एक हो जाता है, तब दूसरे के अंतस स्वर के साथ उसके स्वर भी जुड़ जाते हैं। तब भीतर और बाहर का संघर्ष समाप्त हो जाता है। बाहर की अवस्था तो बस भीतर की अवस्था की छाया मात्र है। उसके बाद अगर वह किसी के साथ संबंधित होना चाहे तो हो सकता है, और अगर नहीं होना चाहे तो नहीं हो सकता है। तब व्यक्ति पूरी तरह से स्वतंत्र होता है। फिर जो भी वह चुनना चाहे, चुन सकता है। अगर संबंधित होना चाहे, तो संबंधित हो सकता है, लेकिन फिर उसमें कहीं किसी प्रकार का कोई दवदव नहीं होता है और अगर वह अकेले ही रहना चाहता है, किसी से संबंध नहीं बनाना चाहता है, तो वह अकेले रह सकता है। उस अकेलेपन में कहीं कोई अकेलापन नहीं होता। यही तो वह अप्रतिम सौंदर्य होता है जब व्यक्ति भीतर से एक हो जाता है, भीतर से आर्गेनिक यूनिटी को उपलब्ध हो जाता है।
पतंजलि का पूरा का पूरा प्रयास इसी बात के लिए है कि सूर्य – ऊर्जा चंद्र- ऊर्जा में कैसे रूपांतरित हो जाए और उसके पश्चात व्यक्ति उन दोनों ऊर्जाओं के प्रति साक्षी कैसे हो जाए और जो ऊर्जाएं आपस में मिल रही हैं, एक दूसरे में विलीन हो रही हैं, अंत में उनका भी अतिक्रमण कैसे हो जाए ।
मन ऐसा कभी न होने देगा, जब तक कि मन को छोड़ ही न दो मन हमेशा बंटा-बंटा, विभाजित रहता है, क्योंकि यही मन का सच्चा स्वभाव है, विभाजन के आधार पर ही मन जिंदा रहता है। तो पुरुष हो या स्त्री हो - यह विभाजन है, और यही है मन। बुद्ध कौन हैं- पुरुष हैं या स्त्री हैं? शिव का एक और रूप- अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा के रूप में हमारे पास एक प्रतीक के रूप में है-आधा पुरुष, आधी स्त्री वह प्रतीक पूर्ण है और यह ठीक भी है, क्योंकि हमारा जन्म माता और पिता के सम्मिलन से होता है हमारे भीतर आधा अंश हमारे पिता का है, और आधा अंश हमारी मां का है। तो स्त्री और पुरुष में बाहर से ही भेद होता है, उनकी गुणवत्ता में कोई भेद नहीं होता। स्त्री चेतन रूप से स्त्री होती है, और अचेतन रूप से पुरुष होती है। पुरुष चेतन रूप से पुरुष होता है, अचेतन रूप से स्त्री होता है। बस, स्त्री-पुरुष के बीच का भेद इतना ही है।