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नहीं, विजय से जीत से अतिक्रमण संभव नहीं है। अतिक्रमण का तो अपना ही सौंदर्य है, किसी पर भी
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जबर्दस्ती विजय पाना कुरूप है। जब व्यक्ति अतिक्रमण करता है, तब वह अहंकार की सारी मूढ़ताओं को समझ लेता है, उसकी जड़ता को जान लेता है। वह अहंकार के द्वारा दिखाए गए झूठे भ्रम जालों को और अहंकार की खोखली आकांक्षाओं को समझ लेता है और अगर अहंकार का यह रूप दिखाई पड़ जाए, तो फिर अहंकार अपने से ही मिट जाता है। फिर ऐसा नहीं कि हम अहंकार को छोड़ते हैं, क्योंकि अगर हम अहंकार को छोड़ेंगे, तो हम दूसरे ढंग से अहंकार को जीने लगेंगे। और यह भी हमारा अहंकार ही होगा कि मैंने अपने अहंकार को स्वयं मिटा दिया।' अहंकार तो स्वयं की ही समझ से बिदा होता है और समझ आग के समान कार्य करती है, उसमें अहंकार जलकर राख हो जाता है।
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और ध्यान रहे, यह हम कैसे जानेंगे कि हमने अहंकार पर विजय पायी है या अहंकार का अतिक्रमण किया है। अगर अहंकार पर विजय पायी है, तो व्यक्ति विनम्र हो जाता है और अगर अहंकार का अतिक्रमण किया है तो न तो व्यक्ति अहंकारी होगा और न ही विनम्र होगा। क्योंकि तब पूरी बात ही बदल जाती है। अहंकारी व्यक्ति ही विनम्र हो सकता है। जब अहंकार ही नहीं बचा तो विनम्र कैसे हो सकते हो? फिर कैसी विनम्रता? फिर विनम्र होने को भी कौन बचेगा? तब तो पूरी बात ही बदल जाती है।
तो जब कभी अहंकार पर जबर्दस्ती विजय पायी जाती है, तो वह विनम्रता बन जाता है। जब अहंकार का अतिक्रमण होता है, तो व्यक्ति उस जाल से मुक्त हो जाता है - वह न तो विनम्र ही होता है और न ही अहंकारी रह जाता है। तब वह सीधा-सरल, सच्चा और प्रामाणिक होता है। व्यक्ति किसी भी तरह की अति पर नहीं जाता, व्यक्ति मध्य में ठहर जाता है।
किसी भी तरह की अति अहंकार का ही हिस्सा है। पहले हम सोचते हैं कि 'मैं सब से अच्छा आदमी हूं।' फिर हम सोचने लगते हैं कि 'मैं सब से ज्यादा विनम्र हूं, मुझसे ज्यादा विनमा कोई भी नहीं । ' पहले हम यह बढ़ा-चढ़ाकर बताने की कोशिश करते हैं कि 'मैं कुछ हूं मैं विशिष्ट हूं।' फिर यह ब की कोशिश करते हैं कि 'मैं कुछ भी नहीं हूं लेकिन यही कुछ न होना मेरी विशिष्टता है।' पहले तो हम चाहते हैं कि संसार हमारी विशिष्टता को पहचान कर प्रशंसा करे। फिर जब लगता है कि ऐसा नहीं हो रहा है क्योंकि दूसरे भी इसी प्रतियोगिता में सम्मिलित हैं, और किसी को किसी के विशिष्ट होने से कुछ लेना-देना नहीं है। दूसरे भी विशिष्ट हैं और वे अपने अपने ढंग से चल रहे हैं। और जब ऐसा लगने लगता है कि यह प्रतियोगिता तो बहुत कठिन है, और विशिष्ट होने से बात न वाली नहीं है, तब हम दूसरा रास्ता अपनाते हैं - ज्यादा चालाक, ज्यादा होशियारी से भरा मार्ग अपनाते हैं। हम कहना प्रारंभ करते हैं, मैं कुछ भी नहीं हूं, मैं तो ना कुछ हूं। लेकिन कहीं गहरे में हम प्रतीक्षा करते रहते हैं कि अब तो लोग मेरे इस ना - कुछ होने को पहचानेंगे और मुझे सम्मानित करेंगे। लोग आएंगे और कहेंगे, 'आप बड़े महान संत हैं। आपने अपने अहंकार को पूरी तरह मिटा दिया है, आप
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