________________ इन्हीं बीमार लोगों के कारण ही तो और ये रुग्ण लोग हैं, इन्हें मनो -चिकित्सा की आवश्यकता है। सभी राजनेताओं को, सभी सत्ता के लिए लालायित लोगों को और अहंकार की यात्रा पर चलने वाले उनकी रूग्ण प्रतियोगी प्रवृत्ति और स्वयं को विशेष सिद्ध करने के उनके विक्षिप्त प्रयास के कारण, दूसरे लोगों को लगता है कि वे तो कुछ भी नहीं हैं, वे विशिष्ट नहीं हैं, वे तो व्यर्थ हैं -उन्हें तो बस ऐसे ही जीना है और ऐसे ही मर जाना है। धारणा जो कि तुम में बहुत गहरे धंस गई है यह बहुत ही खतरनाक, जहरीली और विषाक्त है। इसे स्वयं के भीतर से उखाड़कर फेंक दो। लेकिन ध्यान रहे, जब मैं कहता हूं कि तुम अनूठे हो, विलक्षण हो, तो मेरा अभिप्राय किसी तुलनात्मकता से नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा कि तुम किसी दूसरे से ज्यादा अनूठे हो। जब मैं कहता हू कि तुम अनूठे हो, बेजोड़ हो, तो मैं ऐसा निरपेक्ष अर्थों में कह रहा हूं - मैं किसी के संबंध में, या तुलना के रूप में नहीं कह रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम दूसरे की अपेक्षा अधिक अनूठे हो। तुम बस अनूठे हो। जितना कोई दूसरा व्यक्ति अनूठा है, उतने ही तुम भी अनूठे हो -तुम उतने ही अनूठे और अद्वितीय हो, जितना तुम्हारा पड़ोसी। अनूठा होना तुम्हारा स्वभाव है। तुमने पूछा है 'क्या आपका मार्ग विहीन मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिए है या केवल थोड़े से दुर्लभ लोगों के लिए ही है?' वह केवल दर्लभ लोगों के लिए ही है, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में दुर्लभ है। मैं तुम से एक कथा कहना चाहूंगा: एक बहुत ही खराब स्वभाव का राजा था। वह राजा इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि कोई व्यक्ति उससे अधिक श्रेष्ठ है वह जरूर कोई शुद्ध राजनेता रहा होगा -शुद्धतम जहर रहा होगा। ........तो जैसा कि विशेष अवसरों पर होता ही था, उसने राज्य भर के सभी पंडितो को आमंत्रित किया और उनसे यही उसने पूछा हम दोनों में से कौन ज्यादा महान है, मैं या परमात्मा? क्योंकि जब कोई व्यक्ति अहंकार के मार्ग पर चल पड़ता है तो अंततः उसकी लड़ाई परमात्मा के विरुद्ध प्रारंभ हो जाती है - और यह अंतिम लड़ाई होती है। अंतिम होना भी परमात्मा के विरुद्ध होता है, क्योंकि एक न एक दिन यह समस्या उठने ही वाली है. कि श्रेष्ठ कौन है, परमात्मा या मैं? फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है, मैं परमात्मा में भरोसा नहीं करता, क्योंकि अगर मैं परमात्मा पर भरोसा