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क्या तुम मेरी बात को समझ रहे हो? मेरी मौजूदगी के माध्यम से तुम आत्मघात कर ले सकते हो, मैं तुम्हारी हत्या नहीं कर सकता हूं। मैं तो बस उपलब्ध हूं। मेरे माध्यम से तुम स्वयं अपनी मदद कर सकते हो। और जिस दिन ऐसा होगा उसे तुम समझ सकोगे, केवल तभी तुम समझ सकोगे, कि ऐसा तुम अपने आप भी कर सकते थे। लेकिन अभी तो अकेले ऐसा करना संभव नहीं है, लगभग असंभव ही है। यहां तक कि मेरे साथ होकर भी जब ऐसा कर पाना इतना कठिन है, तो अकेले तो असंभव ही
अधैर्य न करो, प्रतीक्षा करो और अधिकाधिक अपने साक्षी –चैतन्य में प्रतिष्ठित हो जाओ।
जब पीड़ा हो, दुख हो तो उस समय उनसे तादात्म्य न बनाना बहुत आसान होता है। लेकिन असली परेशानी और समस्या तो तब खड़ी होती है जब हम गहन प्रेम में हों, आनंदित
जब हम गहन प्रम म हा, आनदित हो,खुश हों, प्रसन्न हों, गहन ध्यान में लीन हों, आनंद-मग्न हों, तब तादात्म्य न बना पाना बहुत कठिन होता है। लेकिन तब हम वहीं पर रुक जाते हैं। वही है असली घड़ी, जब इस बात का होश रहे कि तादात्म्य स्थापित न हो जाए। स्मरण रहे, जब तुम आनंदित होते हो, तब भी जागरूक रहना कि यह भी एक भावदशा ही है; यह भी आई है और चली जाएगी। जैसे बादल आते हैं, और चले जाते हैं, बादल सुंदर है। उस आनंद
अवस्था के प्रति अनुगृहीत होना, परमात्मा को धन्यवाद देना, लेकिन फिर भी उससे अछूते ही बने रहना। जल्दी मत करना और उसके साथ तादात्म्य मत बनाना। उसी तादात्म्य के कारण और अधिक की आकांक्षा उठती है, मांग खड़ी होती है।
अगर तुम उससे दूर, तटस्थ, कहीं दूर उदासीन खड़े हो तो और अधिक पाने की आकांक्षा का विचार उठता ही नहीं है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि जब द्रष्टा अनुभव के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है तो वह मन बन जाता है। और मन जो है वही अधिक और अधिक की आकांक्षा है। लेकिन जब अनुभव बादलों की भांति गुजरते हैं, उस समय अगर द्रष्टा केवल द्रष्टा ही बना रहता है, तब मन का अस्तित्व नहीं होता। तब दृश्य और द्रष्टा के बीच एक अंतराल होता है; उनके बीच कहीं कोई सेतु नहीं होता। जब दृश्य और द्रष्टा के बीच कोई सेतु नहीं होता है, उस अवस्था में अधिक की कोई आकांक्षा नहीं रह जाती है-तब कहीं किसी तरह की कोई आकांक्षा होती ही नहीं है। तब तुम परिपूर्ण परितृप्ति होते हो, तुम परम संतुष्ट होते हो।
बोधिसत्व, वह अवस्था आने को है। किसी तरह की जल्दबाजी मत करना और धैर्य मत खोना।
तीसरा प्रश्न: