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उन शिष्यों में से किसी शिष्य ने कहा, अब कभी कोई ऐसा आदमी न होगा जो इतना नैतिक हो। फिर किसी दूसरे शिष्य ने कहा, मैंने अपने गुरु से बहुत कुछ सीखा है। मुझे भी कोई ऐसा आदमी नहीं मिला जो इतना ज्ञानवान हो। हम उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए खो देंगे। फिर किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ कहा। किसी शिष्य ने कहा कि उन्होंने पूरे संसार का त्याग कर दिया था। और इस तरह से वे शिष्य मृत्यु –शय्या पर पड़े अपने गुरु के बारे में बातें कर रहे थे। वे अपने गुरु के ज्ञान की चर्चा कर रहे थे, उनके त्याग की चर्चा कर रहे थे, वे उनके तपश्चर्या से भरे जीवन की चर्चा कर रहे थे, उनके अनुशासित चरित्र की चर्चा कर रहे थे।
और तभी मृत्यु-शय्या पर पड़े गुरु ने अपनी आंखें खोली और कहा, किसी ने भी मेरी विनम्रता के बारे में कुछ भी नहीं कहा!
तो आदमी की विनम्रता भी अहंकार बन जाती है। तब विनम्र होना भी अहंकार को ढांकने का एक आवरण बन जाता है। और तब अहंकार भी पवित्र हो जाता है। और जब कोई विषाक्त चीज पवित्र हो जाती है, तो वह और अधिक विषाक्त हो जाती है।
इसलिए अगर तुम मुझे ठीक से समझो, तो कृपा करके अहंकार की निंदा मत करने लगना अन्यथा तुम निंदा के माध्यम से महा – अहंकार खड़ा कर लोगे। और फिर तुम परेशान और बेचैन रहोगे, क्योंकि कोई भी आदमी स्वयं को विभक्त करके, दूसरों की निंदा करके, निरंतर स्वयं को ही मालिक मानते हए कैसे चैन से रह सकता है? अत: निंदा के भाव को गिराकर और स्वयं को किसी भी बात का निर्णायक मत मानना। तुम जैसे भी हो, अपने को स्वीकार करो। केवल स्वीकार ही नहीं करो, बल्कि जैसे भी हो उसका स्वागत करो। केवल स्वागत ही न करो, उसमें आनंदित होओ। और अचानक तुम पाओगे कि कहीं कोई अहंकार नहीं है, और न ही कहीं कोई महा - अहंकार है। वे कभी थे ही नहीं। तुम ही उन्हें बना रहे थे, तुम ही उनका निर्माण कर रहे थे।
आदमी ने केवल एक ही चीज का निर्माण किया है, और वह है अहंकार। और शेष सभी तो परमात्मा के द्वारा बनाया हुआ है।
दूसरा प्रश्न:
मैं ध्यान में कार्य में और प्रेम में गहरे जा रहा है लेकिन फिर भी लगता है कि इतना पर्याप्त नहीं है। भगवान मैं चाहता हूं कि आप मुझे एक ही बार में सदा-सदा के लिए मिटा दें।