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समर्थ हो, तो मात्र शरीर में होना ही अदभुत आनंददायी हो जाता है। फिर किसी दूसरी चीज की आवश्यकता नहीं होती है तब प्रेम ही आशीष बन जाता है।
प्रवचन 69 - अनूठा अस्तित्व में
योग-सूत्र :
प्रत्ययस्य परिचित्तज्ञानम्।। 19//
जो प्रतिछवि दूसरों के मन को घेरे रहती है, उसे संयम द्वारा जाना जा सकता है।
न च तत्सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात् ।। 2011
लेकिन संयम द्वारा आया बोध उन मानसिक तथ्यों का ज्ञान नहीं करवा सकता जो कि दूसरे के मन की छवि - प्रतिछवि को आधार देते है, क्योंकि वह बात संयम की विषय-वस्तु नहीं होती है।
कायरूपसंयमत्तद्ग्राहमशक्तिस्तम्भे चक्षुः प्रकाशसंप्रयोगेउन्तर्धानम् ।। 2111
ग्राम-शक्ति को हटा देने के लिए, शरीर के स्वरूप पर संयम संपन्न करने से द्रष्टा की आँख और शरीर से उठती प्रकाश-किरणों के बीच संबंध टूट जाता है, और तब शरीर अदृश्य हो जाता है।
एतन शब्दद्यन्तर्धानमुक्तम् ।। 2211
यही नियम शब्द के तिरोहित हो जाने की बात को भी स्पष्ट कर देता है।