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कृष्णमूर्ति को मिल भी गया, तो वह उनको धन्यवाद देगा। और आगे चल पड़ेगा। यही तो सिद्धार्थ ने किया।
सिद्धार्थ का बुद्ध से मिलना हुआ। उसने बुद्ध को सुना। जो कुछ बुद्ध कह रहे थे उस सौंदर्य को उसने अनुभव किया। उनकी उपलब्धि, उनकी संबोधि को सिद्धीर्थ ने महसूस किया। बुद्ध की ध्यान की ऊर्जा ने सिद्धार्थ के हृदय को छुआ। बुद्ध के सानिध्य में उसने अज्ञात के आमंत्रण की पुकार सुनी, लेकिन सिद्धार्थ अपने स्वभाव को समझता था, अपने स्वभाव को पहचानता था । और फिर भी वह अपने हृदय में गहन श्रद्धा, प्रेम, और उदासी के साथ वहां से चला जाता है। वह कहता है, 'मैं आपके साथ रहना चाहता हूं, लेकिन मैं जानता हूं कि मुझे जाना होगा।'
वह बुद्ध को छोड़कर अपने किसी अहंकार के कारण नहीं गया। वह किसी और बड़े सदगुरु की तलाश में नहीं गया। वह गया, क्योंकि वह जानता है कि वह किसी का अनुयायी नहीं बन सकता है उसका मन कहीं कोई बाधा नहीं डाल रहा है, उसने बुद्ध को बिना किसी मन के अवरोध के सुना, उस बुद्ध को पहचाना, उसने बुद्ध को समझा। उसने बुद्ध को पूरी समग्रता से पहचाना और समझा, इसीलिए उसे जाना पड़ा।
अगर कोई व्यक्ति कृष्णमूर्ति को सच में ही ठीक से समझ ले तो उसे कृष्णमूर्ति को छोड़कर जाना ही पड़ेगा। तब ऐसे व्यक्ति के पास बने रहने में कोई सार नहीं है, तब उसे जाना ही पडेगा। तुम गुर्जिएफ के साथ रह सकते हो। तुम कृष्णमूर्ति के साथ नहीं रह सकते, क्योंकि उनकी पूरी देशना अकेले की है, किसी मार्ग का अनुसरण नहीं करना है सत्य का कोई मार्ग नहीं है, सत्य का द्वार तो द्वारविहीन द्वार है – और उस द्वार तक पहुंचने की केवल एक ही विधि है और वह है होशपूर्ण, जागरूक, और सचेत होने की और कुछ भी नहीं करना है जब यह बात समझ आ जाती है, तो तुम अनुगृहीत अनुभव करते हो, तब तुम श्रद्धा से भर उठते हो और अपने मार्ग पर बढ़ते चले जाते हो । लेकिन यह बात केवल एक प्रतिशत लोगों के लिए ही है।
और स्मरण रहे, अगर तुम्हारा वैसा ढंग नहीं है, तुम्हारा वैसा स्वभाव नहीं है, तो वैसा होने का दिखावा मत करना। क्योंकि तुम अपनी निजता को अपने स्वभाव को बदल नहीं सकते हो। और कोई भी व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुकूल होकर ही अपने स्वभाव के पार जा सकता है, अपने स्वभाव के प्रतिकूल होकर नहीं।
तीसरा प्रश्न:
अगर कहीं कोई व्यक्तिरूप परमात्मा नहीं है तो आप हर सुबह मेरे मनोविचारों का उत्तर क्यों देते हैं?