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समझो कि तुम उदास हो। और तुम अपनी उदासी को भी स्वीकार कर लेते हो, तुम उदासी को इस भांति स्वीकार कर लेते हो जैसे कि 'यही अंत है।' तब यात्रा रुक जाती है। तब फिर कोई खोज, कोई तलाश शेष नहीं रह जाती है -तब तुम नकार में ही ठहर जाते हो। तुम अपना घर न में ही, नकार में ही बना लेते हो। तब तुम गतिमान नहीं रह जाते हो, तुम जड़ हो जाते हो, अवरुद्ध हो जाते
हो। फिर नहीं ही तुम्हारी जीवन -शैली बन जाती है। कभी भी किसी चीज को अपनी जीवन -शैली मत बनने देना। अगर तुमने नहीं को उपलब्ध कर लिया है तो वहीं पर मत रुक जाना। क्योंकि खोज अंतहीन है। चलते जाना, चलते ही चले जाना...।
एक दिन जब नहीं के एकदम गहन तल तक पहुंच जाओगे, तब तुम ऊपर सतह की ओर बढ़ने लगते हो। नहीं में जितने गहरे जा सकते हो, उतने गहरे जाओ। एक दिन तुम नहीं के गहनतम तल तक पहुंच जाओगे। फिर उसी जगह पर टर्निंग पाइंट आता है जब तुम विपरीत दिशा की ओर बढ़ने लगते हो। तब हा का जगत प्रारंभ होता है। पहले तुम नास्तिक थे, अब तुम आस्तिक हो जाते हो। अब तुम संपूर्ण अस्तित्व के प्रति ही कहने में सक्षम हो जाते हो। तब वही उदासी आनंद में बदल जाती है, तब वही नहीं ही में बदल जाती है। लेकिन यह भी अंत नहीं है। आगे और आगे बढ़ते चले जाना है। जैसे नहीं चला गया, ऐसे ही एक दिन ही भी चला जाएगा।
यही है झेन का सार कि जहां ही और नहीं दोनों खो जाते हैं, और व्यक्ति पूरी तरह से धारणा-विहीन हो जाता है। तब किसी भी तरह का कोई विचार नहीं रह जाता है -बस उसके पास एक सुस्पष्ट - साफ नग्न –निर्वसन दृष्टि बच रहती है, जो किसी भी चीज से आच्छादित नहीं होती है -यहां तक कि अब हं। भी नहीं बचता है। किसी तरह का कोई विचार, कोई मत, कोई सिद्धांत, कोई शिक्षा नहीं बच रहती है –फिर कोई भी विचार अवरुद्ध नहीं करता है, कोई बाधा शेष नहीं रह जाती है। इसे ही पतंजलि निर्बीज समाधि कहते हैं, बीज रहित समाधि कहते हैं। क्योंकि हा में तो फिर भी कहीं न कहीं बीज निहित रह सकता है।
जिस क्षण हा भी बिदा हो जाता है, वही घड़ी रूपांतरण की घड़ी है। यह वह बिंदु है जहां व्यक्ति पूरी तरह से तिरोहित हो जाता है, और साथ ही साथ उसी पल, उसी क्षण समग्र भी हो जाता है। इसी कारण बुद्ध परमात्मा के लिए न तो कभी हा कहेंगे, और न ही कभी न कहेंगे। अगर कोई बदध से पूछे, 'ईश्वर है?' तो ज्यादा से ज्यादा वे मुस्कुरा देंगे। वह मुस्कान उनके ज्ञान को दर्शाती है। वे ही भी नहीं कहेंगे, वे न भी नहीं कहेंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि दोनों ही बातें रास्ते के पड़ाव हैं, मंजिल नहींऔर अंततः दोनों ही बातें बचकानी हैं। वस्तुत: किसी भी चीज के साथ जब कोई चिपकने लगता है तो वह बचकानी हो जाती है। क्योंकि केवल एक बच्चा ही किसी चीज से चिपकता है, उसे पकड़ता है। परिपक्व व्यक्ति की तो सारी पकड़ छट जाती है। और परिपक्वता वही है जिसमें किसी तरह की कोई पकड़ न हो -यहां तक कि ही की पकड़ भी -न हो।