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यही वह पाइंट है जिसे प्रत्येक व्यक्ति चूकता चला जाता है। हम नहीं जानते कि हम कौन हैं; हम नहीं जानते कि हमारा नंबर क्या है, हम नहीं जानते कि अब तक हम क्या करते रहे हैं। हम चीजों को भूलने में बहुत कुशल हो गए हैं। मनस्विदों का कहना है कि मनुष्य के लिए जो कुछ भी पीड़ादायी होता है, मनुष्य की प्रवृत्ति उसे भुला देने की होती है। ऐसा नहीं है कि हम सच में ही उसे भूल जाते है -हम उसे भूलते नहीं हैं वह सब हमारे अचेतन का हिस्सा बनता चला जाता है। और जब हम गहन सम्मोहन की अवस्था में होते हैं, तो जो कुछ भी अचेतन में छिपा होता है, वह ऊपर आ जाता है, और ऊपर आकर फूट पड़ता है। गहन सम्मोहन की अवस्था में हमारे अचेतन में जो कुछ भी छिपा होता है, वह वापस लौट आता है।
उदाहरण के लिए अगर मैं तुमसे पूछू कि तुमने एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ के दिन क्या किया था। तो तुम्हें कुछ याद नहीं आएगा। हालांकि तुम एक जनवरी को मौजूद थे। एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ को तुम जीवित थे। तुम सभी उस दिन मौजूद थे, लेकिन सुबह से लेकर शाम तक तुमने क्या किया, यह तुममें से किसी को भी याद नहीं।
फिर किसी सम्मोहनविद के पास जाकर स्वयं को सम्मोहित होने दो। जब सम्मोहन की गहन अवस्था में वह तुमसे पूछेगा, 'तुमने एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ के दिन क्या किया था?' तो तुम सभी कुछ -बता दोगे। यहां तक कि तुम एक-एक मिनट के बारे में बता दोगे -कि सुबह तुम सैर को गए थे और वह सुबह बहुत ही सुहावनी थी, और घास पर ओस की बूंदें चमक रही थीं, और तुम्हें अभी भी उस दिन की सुबह की ठंडक याद है, और बगीचे के किनारे लगी हुई झाड़ियां और बेलें काटी जा रही थीं, और वे सभी छोटी-छोटी बातें तुम्हें अभी भी याद हैं, और तुम अभी – अभी काटी हुई बेलों की सुगंध को फिर से भर सकते हो और सूर्योदय. और ऐसी ही छोटी-छोटी सभी बातें, पूरे विवरण और ब्योरे के साथ तुम्हें याद आने लगती हैं। और वह पूरा दिन तुम्हारे सामने ऐसे उपस्थित हो जाता है जैसे कि तुम फिर से उसे जीने लगे हो।
जब भी मन को ऐसा लगता है कि यह सब स्मरण रखना बहुत अधिक हो जाएगा, सभी कुछ स्मरण रखना एक बड़ा बोझ हो जाएगा, तो हम उसे अचेतन के तहखाने में फेंकते चले जाते हैं। और हमें उस तहखाने को खोजना होगा, क्योंकि उस अचेतन में बड़े खजाने भी छिपे हुए हैं। और हमें अचेतन के तहखाने की खोज करनी ही होती है, क्योंकि उनकी खोज के दवारा ही हमें केवल उन मूढ़ताओं के प्रति होश आता है जिन्हें कि हम निरंतर दोहराए चले जाते हैं। इन मूढ़ताओं के पार हम केवल तभी जा सकते हैं जब कि अचेतन को पूरी तरह से देख लें, उसे समझ लें। अचेतन की अतल गहराइयों की समझ ही हमें स्वयं के अस्तित्व के ऊपर ले जाने का एक मार्ग बन जाती है।
आधुनिक मनोविज्ञान का कहना है कि चेतना के दो भेद हैं -चेतन और अवचेतन। लेकिन योग के मनोविज्ञान का कहना है कि एक और भेद है - और वह है परम चेतना। हम समतल भूमि पर रहते हैं, वह चेतना का तल है। उसके नीचे एक और तल है, अवचेतन का -जहां कि हमारे सारे अतीत का